थे। यद्यपि वे प्राचीन रंगमंच आधुनिक ढंग से पूर्ण रूप से विकसित नहीं थे, फिर भी रंगमंचों के अनुकूल कक्ष्याविभाग और उनमें दृश्यों के लिए शेल, विमान और यान तथा कृत्रिम प्रासाद-यंत्र और पटों का उपयोग होता था। नाट्य-मंदिर में नर्तकियों का विशेष प्रबंध रहता था। जान पड़ता है कि रेचक, अंगहार, करण और चारियों के साथ पिडी-बंध अथवा सामूहिक नृत्य का भी आयोजन रंगमंच मे होता था। अति प्राचीन काल में भारतवर्ष के रंगमंच में स्त्रियां नाटकों को सफल बनाने के लिए आवश्यक ममझी गयी। केवल पुरुषों के द्वारा अभिनय असफल होने लगे, तब रंगोपजीवना अप्सगएँ रंगमंच पर आयी। कहा गया है- कौशिकीश्लपणनेपथ्या शृंगार रससभवा अशक्याः पुरुषैमातु प्रयोक्तुम् ग्त्री जनाते । ततोऽसृजन्महातेजा मनसासरमो विभुः । रंगमंच पर काम करन वाली स्त्रियो को अमरा, रंगोपजीनना इत्यादि कहते थे। भालविकाग्निमित्र में स्त्रियो को अभिनय की शिक्षा देनेवाले आचार्यों का भी उल्लेख है। --- 71 मत है कि पुरुप और रबी क र भावानुसार अभिनय उचित है; क्योंकि 'स्त्रीणां र वभावमधुरः कठो नणां बनाव च' - स्त्रियो का कंठ स्वभाव से ही मधुर होता है, पृरुष में बल है, इसलिए रगमच पर गान स्त्रियां कर; पुरुष का गाना रंगमंच पर उतना शोभन नही माना जाता था। 'एवं स्वभावसिद्धं स्त्रीणां गानं नृणा च पाठ्यविधि.'। सामूहिक पिंडीबंध आदि चित्रनृत्यों का रंगमच पर अच्छा प्रयोग होता था। पिंडीबंध चार तरह का होता था-पिडी. शृखलिका, लताबंध और भेद्यक। कई नर्तकियों के द्वारा नृता में अंगहारो के साथ परस्पर विचित्र बाहुबंध और संबंध करके अनेक आकार बनाये जाते थे। अभिनय मे रगमंच पर इनकी भी आवश्यकता होती थी और पुरुषों की तरह स्त्रियो को भी रंगमंच-शाला की उच्च कोटि की शिक्षा मिलती थी। नाटकोपयोगी दृश्यो के निर्माण-वस्त्र तथा आयुधों के साथ कृत्रिम केश-मुकुटों और दाढ़ी इत्यादि का भी उल्लेख नाटय-शास्त्र मे मिलता है। केश-शुक्ट भिन्न-भिन्न पात्रो के लिए कई तरह से बनते थे। रक्षो दानबदैत्यानां पिककेशकृतानि तु । हरिश्मणि च तथा मुखशीर्षाणि कारयेत् ।। (नाट्यशास्त्र २३-१४३) कोयल के पंखों से दैन्य-दानवो की दाढ़ी और मूंछ भी बनाई जाती थी। मुकुट अभिनय के लिए भारी न हों, इसलिए अभ्रा और ताम्र के पतले पत्रों से हलके बनाये जाते थे। कंचुक इत्यादि वस्त्रों का भी नाट्य-शास्त्र मे विस्तृत वर्णन है । रंगमंच : ८९
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