पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९५

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लोप है । दृश्य वस्तु श्रव्य बनकर सवाद मे आती है, किंतु साहित्य मे एक प्रकार के एकांकी नाटक भी लिखने का प्रयास हो रहा है। वे यही समझ कर तो लिखे जाते है कि उनका अभिनय सुगम है। किंतु उनका अभिनय होता कहां है ? यह पाठय छोटी कहानियों का ही प्रतिरूप नाटय है। दृश्यो की योजना साधारण होने पर भी खिडकी के टूटे हुए कांच, फटा परदा और कमरे के कोने मे मकडी का जाला दृश्यों मे प्रमुख होते है -वास्तविकता के समर्थन मे ! भाषा की सरलता की पुकार भी कुछ ऐसी ही है। ऐसे दर्शको और सामाजिकों का अभाव नही, कितु प्रचुरता है, जो पारसी स्टेज पर गायी गयी गज़लो के शब्दार्थो से अपरिचित रहन पर भी तीन बार तालियां पीटते है। क्या हम नही देखते कि बिना भाषा के अबोल-चित्रपटो के अभिनय में भाव महज ही समझ मे आते है और कथान के भावाभिनय भी शब्दो की गरया ही है ? अभिनय तो सुरुचिपूर्ण शब्दो को समझाने का काम रगमच । अच्छी तरह वरता है। एक मत यह भी है कि भाषा स्वाभाविकता के अनुसार पात्रो:। अपनी होनी चाहिए और इम नरह कुछ देहाती पात्रा मे उसी अपनी भाषा का प्रयोग राया जाता है । भध्यकालीन भारत में जिस प्रारत का मस्कृत में मम्मलन रगगन पर कराया गया था, वह बहुत कुछ परिमाणित और वनिम-गो थी। गीता इत्यादि भी सस्कृत बोलने में असमर्थ समझी जाती थी। वतमान पुग की भाषा-मान्धी प्रेरणा भी कुछ- कुछ वैसी ही है। किंतु जाज यदि कोई मुगल कालोन ..ाटक मे लखनवी उर्दु मुगलो से वुतवाता है, तो वह गी स्वामाविक या गस्तविक नही है। फिर राजतो की राजस्थानी भाषा भी आनी चाहिए। यदि अन्य अमभ्य पात्र है, तो उनकी जगली भाषा भी रहनी लाहिए। और इतने पर 7 क्या यह नाटक हिंदी का ही रह जायगा ? यह विपत्ति सदाचित् हिंदी नाटो के लिए ही है। मैं नो हूँगा मिलना और क्लिष्टता पात्रा के भागो और विचारो के अनुमार भाषा मे होगी ही और पात्रो के और हिना के ही आधार पर भाषा वा प्रयोग नाटकाम होना सहिए, मित इस लिा' माषा को एकतन्त्रता नष्ट करके कई तरह की विच • भापामो का प्रयोग हिदी-नाटको के लिए ठीक नही। पात्रा की संस्कृति के गनमार उन। भाव और निगरो में तारतम्य होना भाषाओं के परिवर्त। मे अधिक उपयुक्त होगा। देश और FIR के अनुमार भी सास्कृतिक दृष्टि से भाषा मे पूर्ण अभिव्यक्ति होनी चाहि । र गमच के सम्बन्ध म यह भारी भ्रम है कि रगमच नाटक के लिए लिखे जायें । प्रयत्न तो यह होना चाहिए कि नाटव के लिया रगमच हो, जो व्यावहारिक है। हां, रगमंच पर सुशिक्षित और कुशल अभिनेता था मर्मज्ञ स्त्रधार के सहयोग की आवश्यकता है। देश-काल की प्रवत्तियो का समुचित अध्यय। भी आवश्यक है। फिर तो पात्र रगमत्र पर अपना कार्य सुनारु-रूप से कर सकेगे। इन मत्रो सहयोग पे ही हिदी-रंगगंच का अभ्युत्थान सभव है। रगमंच : ९५