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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९४

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नवीनतम की खोज में इब्सनिज्म का भूत वास्तविकता का भ्रम दिखाता है। समय का दीर्घ अतिक्रमण करके जैसा पश्चिम ने नाटय कला में अपनी सब वस्तुओं को स्थान दिया है, वैसा क्रम-विकास कैसे किया जा सकता है, यदि हम पश्चिम के 'आज' को ही सब जगह खोजते रहेंगे? और यह भी विचारणीय है कि क्या हम लोगों का सोचने का, निरीक्षण का दृष्टिकोण सत्य और वास्तविक है ? अनुकरण में फैशन की तरह बदलते रहना साहित्य में ठोस अपनी वस्तु का निमंत्रण नहीं करता। वर्तमान और प्रतिक्षण का वर्तमान सदैव दूषित रहता है, भविष्य के सुंदर निर्माण के लिए। कलाओं का अकेले प्रतिनिधित्व करने वाले नाटक के लिए तो ऐसी 'जल्दबाजी' बहुत ही अवाछनीय है। यह रस की भावना से अस्पृष्ट व्यक्ति-वैचित्र्य की यथार्थवादिता ही का आकर्षण :, जो नाटक के संबंध में विचार करने वालों को उद्विग्न कर रहा है । प्रगतिशील विश्व है, किंतु अधिक उछलने मे पदस्खलन का भी भय है। साहित्य गे युग की प्रेरणा भी आदरणीय है, कितु इतना ही अलम नही । जब हम यह समझ लेते है कि कला को प्रगतिशील बनाये रखने के लिए हमको वर्तमान सभ्यता का-- जो सर्वोत्तम है-अनुमरण करना चाहिए तो हमारा दृष्टिकोण भ्रमपूर्ण हो जाता है। अनीन और वर्तमान को देखकर भविष्य का निर्माण होता है, इसलिए हमको साहित्य मे एकागी लक्ष्य नही रखना चाहिए । जिस तरह हम वास्तविक या प्राचीन शब्दों मे लोकधर्मा अभिनय की आवश्यकता समझते हैं, ठीक उसी प्रकार से नाटयधर्मी अभिनय को भी देश, काल, पात्र के अनुसार रंगमंच में संगृहीत रहना चाहिए। पश्चिम ने भी अपना सब कुछ छोड़कर 'नये' को नहीं पाया है। श्री भारतेन्दु ने रंगमंच की. अव्यवस्थाओ को देखकर जिस हिन्दी रंगमंच की स्वतन्त्र स्थापना की थी, उसमे इन सब का समन्वय था। उस पर सत्य-हरिश्चन्द्र, मुद्राराक्षस, नीलदेवी, चन्द्रावली, भारत-दुर्दशा. प्रेमयोगिनी सब का सहयोग था। हिन्दी रंगमच की इम स्वतन्त्र चेतना को मजीव रखकर रंगमंच वी रक्षा करनी चाहिए । केवल नयी पश्चिमीय प्रेरणाएं हमारी पथ-प्रदर्शिका न बन जायं। हां, उन सब साधनों मे जो वर्नमान विज्ञान-द्वारा उपलब्ध है, हमको वंचित भी न होना चाहिए। आलोचको का कहना है कि वर्तमान युग की रंगमंच की प्रवृत्ति के अनुसार भाषा सरल हो और वास्तविकता भी हो।' वास्तविकता का प्रच्छन्न अर्थ इब्सेनिज्म के आधार पर कुछ और भी है । वे छिपकर कहते है-हमको अपराधियों से घृणा नही, गहानुभूति रखनी चाहिए, इसका उपयोग चरित्र-चित्रण में व्यक्ति- वैचित्र्य के गमर्थन भी किया जाता है। रंगमंच पर ऐसे वस्तु-विन्यास समस्या बनकर रह जायेंगे। प्रभाव का अमद्ध स्पष्टीकरण भाषा की क्लिष्टता से भी भयानक है। रेडियो ड्रामा के संवाद भी लिखे जाने लगे हैं, जिनमे दृश्यो का संपूर्ण ९४ : प्रसाद वाङ्मय