पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९७

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इतिहास । जहाँ नाटय में आम्यंतर की प्रधानता होती है, वहाँ श्रव्य में बाह्यवर्णन ही मुख्यतः अपेक्षित है। वह बुद्धिवाद से अधिक संपर्क रखनेवाली वस्तु बनती है। क्योंकि आनन्द से अधिक उसमे दुःखानुभूति की व्यापकता होती है और वह सुनाया जाता था, जनवर्ग को अधिकाधिक कष्टसहिष्णु, जीवन-संघर्ष मे पटु तथा दु:ख के प्रभाव से परिचित होने के लिए । नाटको की तरह उममे रसात्मक अनुभूति, आनन्द का साधारणीकरण न था। घटनात्मक विवेचनाओं की प्रभावशालिनी परम्परा मे उत्थान और पतन की कड़ियाँ जोडकर महाकाव्यों की मृष्टि हुई थी- विवेकवाद को पुष्ट करने के लिए। ये वर्णनाएँ दोनो तरह की प्रचलित थी। काल्पनिक अर्थात् आदर्शवादी, वस्तुस्थिति अर्थात् यथार्थवादी । पहले ढंग से लेखको ने जीवन को कल्पनामय आदर्शों से पूर्ण करने का प्रयत्न किया । समुद्र पाटना, स्वर्ग विजय करना, यहाँ तक कि असफल होने पर शीतस मृत्यु से आलिंगन करने के लिए महाप्रस्थान करना, इनके वर्णन के विषय बन गये । इन लोगो ने काव्य-न्याय की प्रतिष्ठा के साथ काल्पनिक अपराधो की भी मृष्टि की, केवल आदर्श को उज्ज्वल, विवेकबुद्धि को महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए . ती माहित्य मे रामायण तथा उसके अनुयायी बहुत-से काव्य प्राय: आदर्श और चारित्र्य के आधार पर ग्रथित हुए है। सब जगह 'कोन्वस्मिन् साप्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्, धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च' की पुकार है । चारित्र्य की प्रधानता उमकी विजय से अक्ति की जाती है। रामायण काल का शोक श्लोक में जिस तरह परिणत हो गया, वह तो विदित ही है, परन्तु चरित्र मे आदर्श की कल्पना पराकाष्ठा तक पहुंच गयी है । महाभारत मे भी करुण-रस की कमी नही है, परन्तु वह आदर्शवादी न होकर यथार्थवाद-सा हो गया है। और तब उसमे व्यक्ति-वैचित्र्य का भी पूरा ममावेश हो गया है। उसके भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन, युधिष्ठिर अपनी चरित्रगत विशिष्टता मे ही महान है । आदर्श का पता नही, परन्तु ये महती आत्माएं मानो निन्दनीय सामाजिकता की भूमि पर उत्पन्न होकर भी पुरुषार्थ के बल पर देव, भाग्य, विधानों और रूढियों का तिरस्कार करती है । वीर कर्ण कहता है- मूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम् देवायत्तं कुले जन्म ममायत्त हि पौरुषम् । उसके बाद आता है पौराणिक प्राचीन गाथाओं का साप्रदायिक उपयोगिता के आधार पर संग्रह। चारों ओर से मिलाकर देखने पर यह भी बुद्धिवाद का, मनुष्य की स्व-निर्भरता का, उसके गर्व का प्रदर्शन ही रह जाता है। मानव के सुख-दुख की गाथाएँ गायी गयी। उनका केन्द्र होता था धीरोदात्त - ७ आरंभिक पाठ्य काव्य : ९७