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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९८

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विख्यात लोकविश्रुत नायक । महाकाव्यों में महत्ता को अत्यन्त आवश्यकता है। महत्ता ही महाकाव्य का प्राण है। नाटक में, जिसमें कि आनन्द-पथ का, साधारणीकरण का सिद्धांत था, लघुतम के लिए भी स्थान था। प्रकरण इत्यादि में जन-साधारण का अवतरण कराया जा सकता था परन्तु विवेक-परम्परा के महाकाव्यों में महानों की चर्चा आवश्यक थी । लौकिक संस्कृत का यह पौराणिक या आरम्भिक काल पूर्णरूप से पश्चिम के 'क्लासिक' के समकक्ष था। भारत में इसके बहुत दिनों के बाद छोटे-छोटे महाकाव्यों की सृष्टि हुई। इसे हम तुलना को दृष्टि से भारतीय साहित्य का 'रोमांटिक'-काल कह सकते हैं, जिसमें गुप्त और शुंग-काल के सम्राटों की छत्रछाया में, जब बाहरी आक्रमण से जाति हीनवीर्य हो रही थी, अतीत को देखने की लालसा और बल ग्रहण करने की पिपासा जगने पर पूर्वकाल के अतीत से प्रेम, भारत की यथार्थवाद वाली धारा में कथा-सरित्सागर और दशकुमारचरित का विकास-विरहगीत- महायुद्धों के वर्णन संकलित हुए। कालिदास, अश्वघोष, दण्डी, भवभूति और भारवि का काव्यकाल इसी तरह का है। हिंदी में संकलनात्मक महाकाव्यों का आरम्भ भी युगवाणी के अनुसार वीरगाथा से आरम्भ होता है । रासो और आल्हा, ये दोनों ही पौराणिक काव्य के ढंग के- महाभारत की परम्परा में है। वाल्मीकि का अवतार तो पीछे हुआ, रामायण की विभूति तो तुलसी के दलों में छिपी थी। यद्यपि रहस्यवादी सन्त आत्म-अनुभूति के गीत गाते ही रहे, फिर भी बुद्धिवाद की साहित्यिक धारा राष्ट्र-सम्बन्धी कविताओं, धार्मिक सम्प्रदायों के प्रतीकों को विकसित करने में लगी रही। कुछ सन्त लोग बीच-बीच में अपने आनन्द-मार्ग का जय-घोष सुना देते थे। हजारों बरस तक हिंदी में वुद्धिवाद की ही तूती बोलती रही, चाहे पश्चिमी बुद्धिवाद के अनुयायी उसे भारतीय पतन-काल की मूर्खता ही समझकर अपने को सुखी बना लें। बाहरी आक्रमणों से भयभीत, अपने आनन्द को भूली हुई जनता साहित्य के आनन्द की साधना कहाँ से कर पाती ? सार्वजनिक उत्सव-प्रमोद बन्द थे। नाटयशालाएं उजड़ चुकी थीं। मौखिक कहा-सुनी, मन्दिरों के कीर्तनों और छोटे-मोटे सांप्रदायिक व्याख्यानों के उपयोगी पद्यों का सृजन हो रहा था। भिवता बताने वाली बुद्धि साहित्य के निर्माण में, सम्प्रदायों का अवलम्बन लेकर, द्वैत-प्रथा की ही व्यञ्जना करने में लगी रही। हां, प्रेम विरह-समर्पण के लिए पिछले काल के संस्कृत रीति- ग्रन्थों के आधार पर वात्सल्य आदि नये रसों की काव्यगत अधूरी मृष्टि भी हो चली थी। यही श्रव्य या पाठय-काव्यों को सम्पत्ति थी। नाटयशास्त्र में उपयोगी पाठ्य का विमर्श किया गया था। यह काव्यगत पाठय का ही साहित्यक विस्तार है, जिसमें रस, भाव, छन्द, अलंकार, नायिकाभेद, गुण-वृत्ति और प्रवृत्तियों का समावेश . । 1 ९८: प्रसाद वाङ्मय