पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यथार्थवाद और छायावाद हिंदी के वर्तमान युग की दो प्रधान प्रवृत्तियाँ हैं जिन्हें यथार्थवाद और छाया- वाद कहते हैं। साहित्य के पुनरुद्धार-काल मे श्री हरिश्चन्द्र ने प्राचीन नाटय- रसानुभूति का महत्त्व फिर से प्रतिष्ठित किया और साहित्य की भाव-धारा को वेदना तथा आनन्द में नये ढंग से प्रयुक्त किया। नाटकों में 'चन्द्रावली' में प्रेम-रहस्य की उज्ज्वल नीलमणि वाली रस-परंपरा स्पष्ट थी और माथ ही 'सत्य हरिश्चन्द्र' में प्राचीन फल-योग की आनंदमयी पूर्णता थी, कितु 'नीलदेवी' और 'भारत-दुर्दशा' इत्यादि में राष्ट्रीय अभावमयी वेदना भी अभिव्यक्त हुई। श्री हरिश्चन्द्र ने राष्ट्रीय वेदना के साथ ही जीवन के यथार्थ रूप का भी चित्रण आरम्भ किया था । 'प्रेम-योगिनी' हिंदी में इस टंग का पहला प्रयास है और 'देखी तुमरी कामी' वाली कविता को भी मैं इसी श्रेणी का समझता हूँ। प्रतीक-विधान चाहे दुर्बल रहा हो, परन्तु जीवन की अभिव्यक्ति का प्रयत्न हिदी मे उसी समय प्रारम्भ हुआ था। वेदना और यथार्थवाद का स्वरूप धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा। अव्यवस्था वाले युग में देव-व्याज से मानवीय भाव का वर्णन करने की जो परम्परा थी, उमसे भिन्न सीधे-सीधे मनुष्य के अभाव और उसकी परिस्थति का चित्रण भी हिंदी में उसी ममय आरम्भ हुआ । 'राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है' वाला सिद्धांत कुछ निर्वल हो चला। इमी का फल है कि पिछले काल में सुधारक कृष्ण, राधा तथा रामचन्द्र का चित्रण वर्तमान युग के अनुकूल हुआ। यद्यपि हिंदी में पौराणिक युग की भी पुनरावृत्ति हुई और साहित्य की ममृद्धि के लिए उत्सुक लेखकों ने नवीन आदर्शो मे भी उमे सजाना आरम्भ किया, कितु श्री हरिश्चन्द्र का आरम्भ किया हुआ यथार्थवाद भी पल्लवित होता रहा । यथार्थवाद की विशेषताओं में प्रधान है लघुता की ओर · साहित्यिक दृष्टिपात । उसमें स्वभावतः दु.ख की प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है । लघुता से मेरा तात्पर्य है कि साहित्य के माने हुए सिद्धांत के अनुमार महना के काल्पनिक चित्रण से अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन के दुःख और अभावों का वास्तविक उल्लेख । भारत के तरुण आर्य-संघ में सांस्कृतिक नवीनता का आंदोलन करने वाला दल उपस्थित हो गया था। वह पौराणिक युग के पुरुषों के चरित्र को अपनी प्राचीन महत्ता का प्रदर्शन मात्र समझने लगा। देवी शक्ति में तथा महत्त्व से हटकर अपनी १०२: प्रसाद वाङ्मय