किंतु ध्वनिकार ने इसका प्रयोग ध्वनि के भीतर सुन्दरता से किया। यस्त्वलक्ष्यक्रमो व्यंग्यो ध्वनिवर्णपदादिषु । वाक्ये संघटनायां च सप्रबन्धेपि दीप्यते ।। (ध्वन्यालोक ६३-२) यह ध्वनि प्रबन्ध, वाक्य, पद और वर्ण मे दीप्त होती है। केवल अपनी भंगिमा के कारण 'वे आंखे' में 'वे' एक विचित्र तड़प उत्पन्न कर सकता है। आनन्दवर्धन के शब्दों में- मुख्या महाकवि गिरामलंकृति भृतामपि प्रतीयमानच्छायषाभूषा लज्जेव योषिता ।। (ध्वन्यालोक ३-१७) कवि की वाणी में यह प्रतीयमान छाया युवती के लज्जा-भूषण की तरह होती है। ध्यान रहे कि साधारण अलंकार जो पहन लिया जाता है, वह नहीं है, किंतु यौवन के भीतर रमणी-सुलभ श्री की बहिन ही है-धूंघट वाली लज्जा नही। सस्कृत-साहित्य मे यह प्रतीयमान छाया अपने लिए अभिव्यक्ति के अनेक साधन उत्पन्न कर चुकी है । अभिनवगुप्त ने लोचन में एक स्थान पर लिखा है- दुर्लभा छाया आत्मरूपता याति । इस दुर्लभ छाया का सम्कृत के काव्योत्कर्ष काल मे अधिक महत्त्व था। आवश्यग्ना इममे शाब्दिक प्रगोगो की भी थी किंतु आतर अर्थ-वैचित्र्य को प्रकट करना भी इसका प्रधान लक्ष्य था। इस तरह की अभिव्यक्ति के उदाहरण संस्कृत में प्रचुर हे । उन्होंने उपमाओ मे भी आतर मारुप्प खोजने का प्रयत्न किया था। 'निरहंकार मृगाक, पृथ्वी गतयौवना, मंवेदनमिवाम्बर', मेघ के लिए 'जनपदबधू- लोचन पीयमान.' या कामदेव के कुसुम-शर वे लिए 'विश्वसनीयमायुधं ये सब प्रयोग वाह्य सादृश्य के अधिक आतर मादृश्य को प्राट करनेवाले है। और भी- 'आद्रं ज्वलित ज्योतिरहमस्मि, मधुनक्तमुतोषमि मधुमत् पाथिवं रज' इत्यादि श्रुतियो मे इस प्रकार की अभिव्यंजनाये बहुत मिलती है। प्राचीनो ने भी प्रकृति की चिर-निःशब्दता का अनुभव किया था - शुचिशीतलचद्रिकानुताश्चिरनि शब्दमनोहग दिश । शमस्रा मनोभवस्य वा हृदि तम्या यथ हेतुता ययु ॥ इन अभिव्यक्तियों मे जो छाया की स्निग्धता है, तरलता है, वह विचित्र है। अलंकार के भीतर आने पर भी ये उनमे कुछ अधिक है। कदाचित् ऐसे प्रयोगों के आधार पर जिन अलंकारो का निर्माण होता था, उन्ही के लिए आनन्दवर्धन ने कहा है- तेऽलंकारा. परां छायां यांनि ध्वन्यंगता गता (ध्वालोक २-२८) प्राचीन साहित्य में छायावाद अपना स्थान बना चुका है। हिंदी में जब इस तरह के प्रयोग आरम्भ हुए, तो कुछ लोग चौके सही, परन्तु विरोध करने पर भी यथार्थवाद और छायावाद : १०७
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