अभिव्यक्ति के इस ढंग को ग्रहण करना पड़ा। कहना न होगा कि ये अनुभूतिमय आत्मास्पर्श-काव्य-जगत् के लिए अत्यन्त आवश्यक थे । काकुं या श्लेष की तरह यह सीधी वक्रोक्ति भी न थी। बाह्य से हटकर काव्य की प्रवृत्ति आंतर की ओर चल पड़ी थी। जब 'वहति विकलं कायो न मुञ्चति चेतनाम्' की विवशता वेदना को चैतन्य के साथ चिरबन्धन में बांध देती है, तब वह आत्मस्पर्श की अनुभूति, सूक्ष्म आंतर भाव को व्यक्त करने में समर्थ होती है। ऐसा छायावाद किसी भाषा के लिए शाप नहीं हो सकता। भाषा अपने सांस्कृतिक सुधारों के साथ इस पद की ओर अग्रसर होती है - उच्चतम साहित्य का स्वागत करने के लिए । हिंदी ने आरम्भ के छायावाद में अपनी भारतीय साहित्यिकता का ही अनुसरण किया । कुंतक के शब्दों में 'अतिक्रांत- प्रसिद्धव्यवहारसरणि' के कारण कुछ लोग इस छायावाद में अस्पष्टवाद का भी रंग देख पाते है। हो सकता है, जहां कवि ने अनुभूति से पूर्ण नादात्म्य नहीं कर पाया हो, वहां अभिव्यक्ति विशृंखल हो गई हो, शब्दों का चुनाव ठीक न हुआ हो, हृदय से उसका स्पर्श न होकर मस्तिष्क से ही मेल हो गया हो, परन्तु सिद्धांत में ऐसा रूप छायावाद का ठीक नहीं कि जो कुछ अस्पष्ट, छाया-मात्र हो, वास्तविकता का स्पर्श न हो, वही छायावाद है। हां मूल में यह रहस्यवाद भी नहीं है। प्रकृति विश्वात्मा की छाया या प्रतिबिंब है, इसलिए प्रकृति को काव्यगत व्यवहार में ले आकर छायावाद की सृष्टि होती है, यह सिद्धांत भी भ्रामक है। यद्यपि प्रकृति का आलंबन स्वानुभूति का प्रकृति से तादात्म्य नवीन काव्य-धारा में होने लगा है, किंतु प्रकृति से सम्बन्ध रखनेवाली कविता को ही छायावाद नही कहा जा सकता। छाया-भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीक-विधान तथा उपचारवक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषतायें हैं। अपने भीतर से मोती के पानी की तरह आंतर स्पर्श कर के भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमयी होती है। १. 'काव्य और कला' से 'यथार्थवाद और छायावाद' पर्यन्त निबन्ध पूज्य पिताश्री के तिरोभाव के पश्चात् मार्च १९३९ मे संकलित होकर 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' नाम से प्रकाशित हुए। इसके साथ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी द्वारा लिखित प्राक्कथन अपना महत्त्व रखता है। अतएव, उसे प्रस्तावित आलेख पर्व में अन्य आलेखों के साथ प्रकाशित किया जायगा।-रत्नशंकर प्रसाद १०८:प्रसाद वाङ्मय
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