भूमि पर छोड़ाने वाली हरयू (सरयू) है। इसके नीचे टिप्पणी में हरयू का प्राचीन पारसीक रूप हरवा तथा फिरदौसी के अनुसार हरिरूद माना गया है। हिंदूकुश के पास बलख से लेकर स्वात और उत्तरी काश्मीर तक के प्रदेश को प्राचीन उत्तर-कुरु कहा जा सकता है। क्योंकि जिस निशय प्रदेश का वर्णन पारसियों ने किया है उसी का ठीक-ठीक प्रसंग ग्रीकों के ग्रंथ में भी पाया जाता है। सिकंदर जब हिंदूकुश (Indian Cacaussus) पर्वत पर पहुंचा तो ग्रीक लोगों ने उसे काकेशस का विजेता माना । वाल्हीक के पास ही भरत के ननिहाल केकय का वर्णन वाल्मीकि में भी आया है। वह गिरिव्रज हिंदूकुश के खबक या कोहदामन (कोशन) के समीप रहा होगा। कोहदामन का उल्लेख मुगलों की चढ़ाई में भी मिलता है । भरत की यात्रा में इसी को 'सुदामानं च पर्वतं' कहा है । संभवतः केकय देश के समीप होने से सिकन्दर के साथियों ने उसे काकेशम कहा है । हिंदूकुश से उतर कर सिकन्दर ने वर्तमान चारिकार के समीप 'अलेग्जेड्रिया' नाम का नगर बसाया। पदिकस को सिंधु की ओर जाने के लिए कहकर स्वयं कुभा की ओर चला और चित्राल की घाटी में पहुंचा, ऋटेरस को कुनार की घाटी सर करने की आशा दी और स्वयं बाजीर पहुंच कर मसागा (Message) का ध्वंस किया, जो वर्तमान मालकंद गिरिपथ के समीप है। फिर उसने निशा प्रदेश और मेरु-विजय करने की इच्छा प्रकट की। वर्तमान स्वात और पंजकोड़ा के ऊपर के इस प्रदेश को Hyperborrians (उत्तर कुरु) के नाम में ग्रीकों ने निर्दिष्ट किया है । 'ऐतरेयालोचन' में आचार्य सत्यव्रत सामश्रमी इसी 'सुवास्तु' (Suvat) को आर्यों की आदिभूमि मानते हैं-आर्यावासस्तदाप्पर्य सुवास्तुप्रदेश एवासीत्-(ऐतरेयालोचन, २४)। इसकी प्रधान नगरी उक्त काल में भी पारसीकों द्वारा कथित निशय (Nasiaya) नाम से विख्यात थी और इसके समीप के शैल को 'मेरोस' (Meros) क्हते थे। इस मेरोस (Meros) या मेरु को अब कोहमोर कहते हैं । ग्रीकों ने इस विराट् शैल को त्रिशृंग कहा है और ऋग्वेद ने भी इसे त्रिककुद माना है। विष्णु- पुराण में इसी त्रिककुद को त्रिकुट नाम से अभिहित किया है। मेरु का वर्णन करते हुए विष्णुपुराण में लिखा है- %. The Tenth of the good lands and Countries which I Ahura Mazda, created, was the beautiful Harahvaiti (foot note) Harauvate; Apaxawaia, corrupted into Arrokhag (name of the country in the Arabic literature) and Arghand (in the modern name of the river Arghand ab) (Vendidad p. 7.) ११६ : प्रमाद वाङ्मय
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