. - होगा। जिस वृत्र को ऐतिहासिक लोग असुर, त्वष्टा का पुत्र मानते हैं, उसे निरुक्त कार मेष बतलाते हैं। ऐसी रूपकीय कल्पनाओं से इतिहास का बनना असम्भव हो जायगा। दूसरा प्रमाण वे पुराणों से भरत के स्वायंभुव मनु के पौत्र होने का देते हैं। इसे मान लेने पर उन्हीं के कथनानुसार भरत को सूर्यवंशी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि पुराणों के अनुसार सूर्यवंश के आदिपुरुष वैवस्वत मनु थे। स्वायंभुव मनु के वंशज का सूर्य-वंशी बनना असम्भव है। वैद्यजी का यह भी मत है कि, चन्द्रवंशी आर्यों की पांच जातियां थीं और यही वैदिक साहित्य में 'पंचजनाः' के नाम से पुकारी गयी हैं । अनु, द्रुह्य , पुरु, यदु और तुर्वशु को एक मन्त्र में एकत्र देखकर उन्होंने इस सिद्धांत की कल्पना की है।' किंतु इसमें इन लोगों के चन्द्रवंशी होने का कोई प्रमाण नहीं। पुराणों में इन्हें चन्द्रवंशी और दिवोदास या सुदास को पौराणिक वंशावली में सूर्यवंश का देखकर भरतों को सूर्य-वंशी गान लेने का वे आग्रह करते हैं-यद्यपि भरत जाति पुराणों के द्वारा चन्द्र- वंश की ही स्पष्टतः मानी जाती है । इधर वाल्मीकि ने नहुष और उनके पुत्र ययाति को सूर्यवंश में माना है। दिवोदास तथा उसके पुत्र 'प्रतर्दन' का उल्लेख विष्णुपुराण के चौथे अंश के आठवें अध्याय में चन्द्र-वंशावली में किया गया है। इस प्रकार वैदिक राजाओं की नामावली लेकर, पिछले काल की घटनाओं का उनमे संबन्ध जोड़कर, जो पौराणिक वंशावली पुराण-प्रादुर्भाव-काल में प्रस्तुत की गयी है, उससे वैदिक काल के इतिहास का निर्णय करना ठीक नहीं है। और जब कि, चन्द्र और सूर्यवंश का उल्लेख वेदों में स्पष्ट नहीं मिलता, तब वैद्यजी का यह प्रयत्न केवल पश्चिमीय मत (जो आर्यों के बाहर से आने का है) का समर्थन मात्र है। आर्यो का दो टोली में आने का वैद्यजी ने सूर्य और चन्द्र-वंश में सामंजस्य किया है। वस्तुतः यह दाशराज्ञ युद्ध भरत जाति के प्रमुख राजा के विरुद्ध अन्य आर्य राज-कुलों का विद्रोह या आर्यों और अनार्यो, चंद्रवंशियों तथा सूर्य-वंशियों का युद्ध नहीं । ऋग्वेद के ७ वें मण्डल के १८ वें सूक्त के आधार पर दाशराज-युद्ध में लड़ने वाले दस राजाओं का जो चयन किया गया है, वह समीचीन नहीं। दाशराज का स्पष्ट उल्लेख तो ७ वें मण्डल के ३३ और ८३ सूक्तों में है। इन दोनों सूक्तों में न दस राजाओं का नाम नही। हाँ, ८३ वें सूक्त में यह तो १. यदिन्द्राग्नी यदुषु तुर्वशेष यद्रुह्य ध्वनृषु पूरुषु स्थः । (ऋक् १-१०८-८) २. एवेन्नु के सिन्धुमेभिस्ततारेवेन्नु के भेदमेभिर्जघान । एवेन्नु कं दाशराजें सुदासं प्रावदिन्द्रो ब्रह्मणा वो वसिष्ठाः ॥ (ऋक् ७-३-३) युवां हवन्त उभयास आजिविन्द्रं च वस्वो वरुण च सातये । यत्र राजभिर्दशभिनिबाधितं प्र सुदासमावतं तृत्सुभिः सह ॥ (ऋक् -८३-६) प्राचीन आर्यावर्त : १४१
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२४१
दिखावट