करने के लिए उन्हें सूर्यवंशी भरतों से लड़ना पड़ा। आप पुराणों में वर्णित प्रयागे को पौरवों की आदि राजधानी भी नही मानते; किंतु चौथे मण्डल के : ० वे सूक्त में वर्तमान सरयू तट पर यदु-तुर्वशों का भरतों से युद्ध होने का उल्लेख आप प्रमाण में देते है। आश्चर्य की बात होगी कि, गंगा से पूर्व की नदी का तो दाशराज्ञ युद्ध से संबन्ध लगाया जाय, कितु गंगा का कोई उल्लेख न हो । वास्तव मे तो दाशराज्ञ-युद्ध की पूर्वीय सीमा यमुना नदी ही पी 'आवदिन्द्रं यमुना तृत्सवश्च प्रात्रभेदं सर्वताता मृषायत अजासश्च शिग्रवो यक्षवश्च बलिं शीर्षाणि जभ्ररश्व्यानि (ऋग्वेद ७१८- १९)। दाशयज्ञ-युद्ध संबंधी सूक्तों मे परुष्णी और यमुना का ही उल्लेख मिलता है। विश्वामित्र के तीसरे मण्डल के ३३वे सूक्त में भरतों के एक और युद्ध का उल्लेख है। यदि उसे भी दाशराज्ञ युद्ध का एक अश माना जाय, तो सतलज और व्यास के तटो पर भी युद्ध का होना प्रमाणित है । जिस पदु-तुर्वशो के युद्ध का होना सरयू तट पर कहा जाता है, वैद्यजी उसे वर्तमान अयोध्या के समीप की सरयू समझते है; यह ठीक नही । ऋग्वेद की सरयू अफगानिस्तान की हरिरूद या अवेस्ता की हरयू है। वही यदु-तुवंशो से युद्ध हुआ था। यादवो का उस सरयू तट पर रहना इससे भी प्रमाणित होता है कि वे वृषपर्वा आदि असुरों के सम्बन्धी थे। असुरों के देश के समीप वही सरयू हो सकती है, वर्तमान अयोध्या के समीप की मरयू नही। और पुरु लोग तो स्पष्ट ही ऋग्वेदीय मंत्रो मे आर्य कहे गये है। जिन प्रमाणों के आधार पर रंगोजिन यदुतुवंशो को अनार्य या द्रविड़ मानते है अथवा वैद्यजी उन्हे भरतो के विरोधी चंद्रवंशी समझते हैं, वे भ्रामक हैं, क्योंकि यदु-तुर्वशु जाति के लोग भी इंद्र के द्वारा सुरक्षित किये गये हैं। वैद्यजी का यह कहना भी सुसंगत नही है कि, भरत सूर्य-वंशी राजा थे; था उनके वंशज सुदास से नवागत चंद्रवशी आर्यों का युद्ध हुआ । भाषाशास्त्र के अनुसार आर्यों की जिस दूसरी टुकडी के भारत मे आने की कल्पना की गयी-वह अधिक विश्वसनीय नहीं है, क्योकि वर्तमान भारत के मानचित्र का और प्राचीन आर्यावर्त की सीमा का विभेद ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। अब यह देखना होगा कि, भरत को सूर्यवंश का प्रमाणित करने मे वैद्यजी कहाँ तक सफल हुए है। उनका कहना है कि, निरुक्त के अनुसार भरत का अर्थ सूर्य है और साथ ही आदि-भरत मे एक व्यक्तित्व मानकर पौरवो के आदिपुरुष पुरु से संघर्ष होने का भी अनुमान करते है। कितु वैदिक काल का इतिहास ढूंढ़ने मे निरुक्त के अर्थ का अवलम्बन नितांत भ्रमपूर्ण १. उत त्या सद्य आर्पा सरयोरिन्द्र पारतः । अर्णाचित्ररथावधीः ॥ (ऋक् ४-३०-१८) २. स्वमाविष नयं तुर्वशं यदु त्वं तुर्वीतिं वय्यं शतक्रतो। स्वं रपमेतश कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवति दम्भयो नव ।। (ऋक् १-५४.६) १४०: प्रसाद वामय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२४०
दिखावट