पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लक्ष्य है, राम को निन्दा, तो लव के मुख से भी कराई गई है। राम निकलोपल है सीता कनक रेखा-"। अर्थात राम के निकषपर सीता सदैव कसी गई, उसी पर परीक्षित की गई। सर्वस्व समर्पण करने वाली हतभागिनी नारी में समस्त दोष एकायन मान बैठने की प्रवृत्ति समाज में हजारों वर्षों से रूढ़ हो गई थी। इधर इन टिप्पणियों के लेखक 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' के ख्यायक रहे । राम को निकषोपल और सीता को कनकरेखा के वाचन का व्यग्य दूर तक जाता है जिसका विवेचन यहां नहीं करना है। किन्तु, सीता पर नाटक लिखने का आग्रह कदाचित इन्ही कारणों से उन्हे स्वीकार न हुआ। हिमाशुराय मीता पर एक उच्च- कोटि की फिल्म बनाना चाहते थे। इस पर मुशी प्रेमचन्द से उनकी बात हुई। मुगीजी ने बम्बई मे १-१०-१९३४ को लिखा था कि 'अगर आप मीता पर कोई फिल्म लिखना चाहे तो मैं हिमाशुराय से जिक्र करूं । मेरे ग्याल में मीता का जितना सुन्दर चित्र आप स्वीच सकने हे दूसरा नही खीच मकता (अवलोक्य -प्रसाद के नाम पत्र, पृष्ठ-६३)। "नारी नरकस्य दारं" मानने वाले समाज मे या वे 'सीता' पर कुछ लिखते तो भारी हंगामा होता जिसकी उन्होने मदेव उपेक्षा की। अन्तविरोध ॥ भाग में श्री द्विजेन्द्र क मत पे वे महमत थे। पृष्ठ १०७ पर टिप्पणी है "अन्तविरोध से वाह्य युद्ध का प्रादुर्भाव है किन्तु वाह्य युद्ध का शीघ्र अवसान होता है-कवि के ईप्सित को शीघ्र समीप लाता है और अन्तर्युद्ध का अवसान नहीं, इसी कारण जय-पराजय दिखाना वा समझौता कराना कवि का उद्देश्य होगा, केवल द्वन्द चला रखने से कभी छुट्टी नहीं।" परिशिष्ट १६९