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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२८

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के पश्चिमी क्षत्रपों को पराजित किया, जो शक थे। इसलिए यही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य था। सौराष्ट्र में रुद्रसिंह तृतीय के बाद किसी के सिक्के नहीं मिलते; इसलिए यह माना जाता है कि इसी चन्द्रगुप्त ने रुद्रसिंह को पराजित करके शकों को निर्मूल किया। पर, बात कुछ दूसरी है। चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने ही भारत की विजय-यात्रा की थी। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आर्यावर्त के विजित राजाओं में एक-एक नाम रुद्रदेव' भी है। सम्भवतः यही रुद्रदेव स्वामी रुद्रसेन था, जो सौराष्ट्र का भी क्षत्रप था। नब यह विजय समुद्रगुप्त की थी, फिर चन्द्रगुप्त ने किन शकों को निर्मूल किया ? चन्द्रगुप्त का शिलालेख बेतवा और यमुना के पश्चिमी तट पर नही मिला । समुद्रगुप्त के शिलालेख से प्रकट होता है कि उसी ने विजय-यात्रा में राजाओं को भारतीय पद्धति के अनुसार पराजित किया । तात्पर्य, कुछ लोगो से नियमित 'कर' लिग इत्यादि । चन्द्रगुप्त के पहले ही यह सब हो चुका था, वस्तुतः वे सब शासन मे स्वतन्त्र थे। तब कैसे मान लिया जाय कि सौराष्ट्र और मालव मे शको को चन्द्र गुप्त ने निर्मूल किया, जिसका उल्लेख स्वयं चन्द्रगुप्त के किमी भी शिलालेख मे नही मिलता। गुप्तवंशियों की राष्ट्रनीति सफल हुई, वे भारत के सम्राट माने जाने लगे। पर स्वय चन्द्रगुप्त का समकालीन नरवर्मा (गंगधार के शिलालेख में) और वह भी मालव का, स्वतन्त्र नरेश माना जाता है। फिर मालव-चक्रवर्ती उज्जयिनीनाथ विक्रमादित्य और सम्राट चन्द्रगुप्त, जो मगध और कुसुमपुर के थे, कैसे एक माने जा सकते है ? चन्द्रगुप्त का समय ४१६ ई० तक है । इधर मन्दसोर वाले ४२४ ई० के शिलालेख में विश्ववर्मा और उसके पिता नरवर्मा स्वतन्त्र मालवेश है। यदि मालव गुप्तों के अधीन होता तो अवश्य किसी गुन राजाधिराज का उममे उल्लेख होता; जैसा कि पिछले शिलालेख मेंजो ४३७ ई० का है-कुमारगुप्त का उल्लेख है - 'वनांतवांतस्कुटपुष्पहासिनी कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति'। इससे वह सिद्ध हो जाता है कि चन्द्रगुप्त का सम्पूर्ण अधिकार मालव पर नही था, वह उज्जयिनीनाथ नही थे, उनकी उपाधि विक्रमादित्य थी। तब उनके पहले एक विक्रमादित्य-३७५ मे पूर्व हुए थे। हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रयम विक्रमादित्य का अनुसंधान मिलता है। गाथा सप्त १. रुद्रदेव-मत्तिल-नागदत्त-चन्द्र वर्मा-गणपतिनाग-नागसेनाच्युतनन्दि - वलवर्मा धनेकार्यादर्त-राज प्रसभोद्धरणोद्धृत प्रभावमहतः परिचारिकी कृत सर्वाटविक. राजस्य। कुमारामात्य हरिषेण द्वारा रचित और महादण्डनायक तिलभट्ट द्वारा प्रतिष्ठित समुद्रगुप्त को प्रशस्ति में इलाहाबाद-स्तम्भलेख की इक्कीसवीं पंक्ति : भंडारकर सूची सं० १५३८ । (सं०) २८: प्रसाद वाङ्मय