पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपादान शर्करा (चीनी) का भी उत्पादन करती रही : जो विपुल साधन सम्पन्न रहे वे तो चीनी के कारखानेदार हुए किन्तु उसी श्रेणी के अल्प वित्त वाले पक्वान्न पण्या:' बने। थोड़ी पूंजी से भी वे अपना काम चला लेते थे। प्रातः से सायं या रात्रि होते-होते उनके लाभ-हानि का चिट्ठा तैयार हो जाता फिर दूसरे दिन से वही क्रम चलता। हाँ, 'कच्चा बाना' होने से दो-चार दिनों से अधिक की खपत का माल तयार करना इस व्यवमाय में सम्भव नहीं था, चीनी तो हजारों बोरे बनाकर रखी जा सकती थी, मिठाई नही। अस्तु, हमारे पूर्वज यद्यपि पक्वान्नपण्याः श्रेणी के थे जिसका नामान्तरण हलवाई हुआ किंतु उसी श्रेणी में चीनी उत्पादकों की जो कोटि रही उमी से हमारे पूर्वजों की आर्थिक व्यवस्था बंधी रही : और, कौटिल्य कथित 'पक्वान्नपण्याः या आपूपिका:' के कार्य कभी नही किए गए। किन्तु श्रेणियों ने जब उपजातियों का स्वरूप ग्रहण किया तब से रोटी बेटी के प्रसंग मे उसी श्रेणीगत उपजाति से हम अद्यापि प्रग्रहीत है । बैरवन वामी श्री मनोहर साहु के तृतीय पुत्र श्री जगन साहु का टेढ़ीनीम की तिरमुहानी पर तम्बाकू बेचने और वही स्थान लेकर आवाम करने और तम्बाक का कारखाना चलाने का पहले उल्लेख किया जा चुका है-वे श्री जगन साहु सात पुरुष पूर्व के व्यक्ति रहे । जिनके उद्यम और अध्यवसाय से व्यवसाय बढ़ता गया और उनके पुत्र श्री गुरुसहाय के कार्य काल में भूसम्पदा अजित होती गई। श्री गुरुसहाय के दिवंगत होने के बाद उनकी पत्नी श्रीमती केसरा ने अपने पुत्रों (श्री गणपति और गोवर्द्धन) से कहा कि उस भूमि को लेकर उम पर शिवालय बनवाओ जहाँ बैठकर तुम्हारे पितामह ने व्यवसाय आरंभ किया था। 'माता, भूमि तो सद्यः ले लेंगे शिवालय बनवाने में विशेष द्रव्य लगेगा उसकी व्यवस्था करके वह भी हम लोग करेगे'। माता केसरा ने कहा तुम लोगों को इस काम को केवल व्यवस्था करनी है रुपया नही लगाना है वह मैं दूंगी। अशफियों से भरे दो बटुए उनके पास रक्षित रहे । पुत्रों ने आश्चर्य से कहा कि हम लोगों ने इतने संकट झेले तब आपने यह नही निकाला। 'तब निकालती तो आज जिम स्थिति में तुम हो वह न आती केवल अशफियां बेचते खाते और यह भी तो एक दिन समाप्त हो जाता तब क्या करते ? इमसे शिवालय बनेगा और अपने पितामह की कर्म भूमि पर शिवलिंग स्थापन करो यह पीढ़ी दर पीढ़ी अक्षय कीर्ति देगा।' भूमि ली गई पत्थर आए संगतराश जुटे और श्रीमती केसरा देवी कार्य निर्देश करने लगी उनकी पहली आशा थी 'भोजन करके काम लगाओ और काम से छूटने पर चना गुड़ लेकर जाओ'। बड़े-बड़े हण्डों में उन कर्मियों के लिए वे भोज्य सामग्री प्रस्तुत रखती थी। इस प्रकार गणपतेश्वर लिंग प्रतिष्ठा हुई। यह अठारहवी शती के उसर भाग की कथा है । प्रायः उसी काल में अहिल्याबाई के द्वारा १७८५ में विश्वनाथ लिंग भी प्रतिष्ठित हुआ था। १८६: प्रसाद वाङ्मय