पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२८५

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निमित्त जो आगे बढ वे क्षत्रिय हुए और विश का शेष एव बडा भाग वैश्यो का बना जिस कर्मानुमार श्रेणियां बनी किन्तु उनमे उच्चाबच का भाव अभी नही रहा । रथकार, कुलाल कौर आदि-आदि अपने स्तरों पर कार्य करते हुए समान थे किन्तु हाथ से या परिश्रम का काम करने वालो को-ब अपने को उच्च समझने वालो ने, शासन करने वालो ने हेय समझ अपने हितो में उनमे ऊंच-नीच के भाव भरे तब उनमे वे प्रवृत्तियां जागी जिन्होने वर्णों और जातियों के भद किए किन्तु अभी श्रेणियाँ सगठित रही कारण उनका आधार आर्थिक था। श्रेणियां व्यवसाय पर आधारित रही और व्यवसाय का मूल था अर्थ । पश्चिम मे इसी को 'गिल्ड' कहते है। श्रेणी के अध्यक्ष प्रवर कहे जाते थे। श्रेणियो मे अथवा उसने तत्तत कर्मो मे सयुक्त होने मे विसी को रोक नहीं रही, जैमा कि म्यन्दगुप्त ने इन्दार ताम्रपत्र मे (भण्डारकर सूची १२७९) विदित होता है इन्द्रपुर निवामिन्यास्तलिक श्रण्या जीवन्त प्रवराया- इन्द्रापुरक तणिभ्या भत्रियाचलनर्म भृकुण्ठ सिहाभ्यामापाठान' का उल्लेख प्रमाणित करता है कि तैलिक श्रेणी म क्षत्रिय भी मम्मिलित होकर अपने वर्ण की इयत्ता को यथावत रखता था। आज भी हनवाई श्रेणी के व्यवसाय में अनक वर्णा के जो लोग मम्मिलित है उनी इयत्ता स्वतत्र है। किन्तु, पराक्त गणियां उपजाति के रूप मे रूढ होती गई और श्रेणी-कर्म से विरत होकर भी औपजातिक शखला से व्यक्ति अथवा कुल आबद्ध रहा जमे, 'सघनी साहु-कुल' । प्रथम स्थानवाची शब्द कान्यकुब्ज प्रमुख है जो वैश्या के अतिरिक्त ब्राह्मणो और क्षत्रियो मे भी अपना वर्चस्व रखता है। श्रेणीवाची हलवाई शब्द मूलन अरबी भाषा का है जिमका प्रचलन मुसलमानी हमलावरो के प्रभुत्व-काल से पहले नही माना ज. सत्र ना है। इसके पूर्व पक्वान्नपण्या:, आपूपिका और औदनिका तीन निरामिष भोज्य पदार्थ बनाकर बेचने वालो की सज्ञा थी, और आमिष भोज्य के व्यवसायी पाक्वामाणिक कहे जाते थे। आमिष और निरामिष मे केवल पदार्थगत भद रहता था। जैन प्रभाव ने इसमे ग्रा. -अग्राह्य की रेखा भी खीच दी। केवल उन्ही के यहाँ आमिषाहार वजित रहा है। मूल हिन्दू धर्म-शास्त्रो मे आमिष का निषेध नही था। प्रत्युत, श्राद्ध और पारण मे मास-मत्स्य विहित ही नहीं कही-कहीं आवश्यक भी रहे। शूकर-मास का पिण्ड-दान श्रेष्ठ कहा गया। बुद्ध को गृहपति चन्द कम्मारपुत्त ने कदाचित इसी श्रेष्ठता के कारण 'सूकर- माद्दव' का पिण्ड-पात दिया था। अवैदिक ग्रात्यो की निषेधपरक दृष्टि आर्य-सस्कृति को आत्मसात् करने लगी। हिसा-मूलक यज्ञवाद से अहकारमूलक अहिंसावाद का जनमानस मे द्वन्द्व और उसके भावी परिणामो का आकलन कर तथागत बुद्ध ने जिस मध्यम-मार्ग का विधान किया वह भी मध्य से हटकर वाम-दक्षिण होता गया। अस्तु, पक्वान्नपण्या. आदि निरामिष-खाद्य व्यवसायी श्रेणी मे संगठित वैश्यो की औपजातिक सज्ञा कालान्तर मे हलवाई पदवाच्य हुई। यही श्रेणी पक्वान्न के मुख्य श्री कुलदेवताय नम : १८५