का मुख्य कारण उनका मासाहार बना जो उनके पिता और अग्रज के लिए खेद का विषय था। यद्यपि शवों के लिए मांसाहार निषिद्ध नही, हा पसाण्ड का परम निषेध है। उनके पिताश्री गुरुसहाय और अग्रज श्री गणपति साहु की परवर्ती सन्ततिधारा पूर्णतः निरामिष रही। अन्ततः श्री गोवर्द्धन साहु की शाखा में वित्त के भोग और नाश के क्रम ने व्यवसाय और सम्पदा का कवलन कर लिया। रसोई के जिन चांदी के बर्तनों मे गंगा जल से भोजन वनकर और देव-भोग अर्पित होता था उसमें मांस का पकना देख अन्न भोग बन्द कर दिया गया और मात्र फलाहार का नैवेद्य निवेदत होने लगा -किन्तु कितने दिन । शिवरत्नेश्वर लिग की स्थापना गोवर्द्धनसराय में कर लेने के पश्चात् श्री शिवरत्न साह ने होजकटोरा से नाता तोड लिया। उनकी शाखा के शेष परुप श्री राजाराम निस्मन्तान रहे । श्री गोवर्द्धन माहु जब तक रहे तब तक दिन के भोजन के लिए वे गोवर्द्धनमराय आते थे क्योकि पत्नी नही रह गई थी और घर में कोई मी परिवार की महिला नही थी जो दिन का भोजन चावल दाल का बनाकर उन्हें खिला" अन्य किमी के हाथ का कच्चा भोजन गाह्य नही । सुतरा, वे अपने दल में आठ-इम -थियार बन्द लोगो के साथ मध्याह्न भोजन के लिए आते एक पीढा उनके लिए और एक उनकी भुजाली के लिए रखा जाता था वैठ कर जब वे पुकारने 'हाँ दुनहिनिया ले आव हम बइठल हई' तब मेरी प्रपितामही थाली लाकर रखती। वे चुपचाप भोजन कर हाथ मंह धोकर महादेव-महादेव कहते भुजाली उठाकर चल देते। उनकी लाग डांट कुछ दुर्द्धर्ष लोगो से रहा करती थी इसलिए दम-बीम पट्टे मदेव रहते थे। श्री शिवरत्न साहु पर एक जिमीदार के हमले पर उसमे एक जबरदस्त फौजदारी हो चुकी थी जिसमे मात लाशे गिरी। कुछ ऐसे जीवन क्रम में वे व्यवसाय मे विरत होने को बाध्य भी थे। तब सचित कब तक चलता? वित्त की तीन अवस्थाएँ कही गई है-दान, भोग और नाश अन्तिम दोनों भोग और नाश तो श्री गोवर्द्धन साहु के भाग मे गई और पहली अवस्था दान की उनके भतीजे श्री शिवरत्न माहु मे उदित हुई। गंगा स्नान से लौटते-लौटते द्रव्य तो वट ही जाता लोटा और शरीर का वस्त्र भी प्रायः उतर जाता था। यह क्रम व्यवसाय में कोई हिमाब नहीं रहने देता था। उन्होंने अपना एक मीधा रास्ता बना लिया था कि जो आय दान के बाद बचे उसे तहखाने मे छोड़ते जाना और वर्ष भर कर्मचारियों का वेतन और सामान्य घर खर्च छोड़ किमी को हिसाब न देना जहाँ से माल और जिन्में आनी जायं जमा करते जाना । धनतेरस के एक दिन पहले तहखाने से सिक्के निकलवाकर तौल करा-करा के ५००, १००० की बोरियों में बन्द कराना और साल भर का जिसका जो बकाया है सब का योग कराके बोरियों को शकट पर लदवाकर एक शकट पर अपने तथा बही लेकर मुनीम के साथ बैठ घूम-घूम कर १८८. प्रसाद वाङ्मय
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