पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सबका हिसाब चुकता कर देने के बाद फिर देखना अब क्या शेष है जो रुपया बचता है वह तथा कारखाने में जो माल शेष है वह मुनाफा है, इतने से काम के लिए घंटों माथा-पच्ची करने की जगह -'शिवशिव जपत मन आनंद मगन होय-' उनका जीवन दर्शन रहा। किन्तु उनके छहो आम्मज इससे असन्तुष्ट रहे। उन लोगों का कथन रहा कि आपकी दानवृत्ति पर हम कोई अंकुश नही लगाते किन्तु हमें हिसाब रखने दें कि दान की ओट मे कर्मचारी चुरा तो नही रहे है। उनका उत्तर था अरे जो चुराता है अपना ही चुराता है हमारा क्या सभी तो महादेव-महादेव तुम लोग जिसमें सन्तुष्ट हो सको वैसा प्रबन्ध करो। तब एक सर्राफ खजाची नियत हुआ वहां से साहुजी बोटते थे और वह अपना पुर्जा गद्दी पर भेज कर भुगतान मंगा लेता था। हिसाब तिमाही-छमाही और दीवाली पर होता था । एक पत्र मेरे पूज्य पितामह साहु देवीप्रसाद का अपने भाइयों के नाम है जिसमे अन्य बातो के साथ खजाची के बकाये के देने का उल्लेख है कि कार्तिक सुदी १ मवत् १९४१ को खजाची ना बाकी देना २७७१०=) था। ज्ञातव्य है कि श्री शिवरत्न साहु का तिरोधान चैत वदी ७ संवत् १९४० को हआ था। सवत् १९४० की दीवाली का हिमाब साफ होने के बाद यह प्राय चार मास का बकाया है जो कातिक मुदी १ मवन् १९४१ हिमाव मे आ रहा है। इसके अतिरिक्त घर के दरवाजे पर भी एक तमाखू मुरती की दूकान उनके दान के निमित्त खुलवा दी गई थी जिस पर विस्मय जनक रूप से गली मे सत्तर-अस्सी रुपए की बिक्री प्रति दिन होती और गाहुनी वहां भी बैठकर उसे वितरित करते रहते। पूज्य पिताश्री कहा करते थे कि उनका वार्षिक दान का व्यय प्रायः एक लाख रहा । जब उनके ज्येष्ठ पुत्र को विषधर मर्प ने उस लिया वे शिवालय मे पूजन पर थे। लोग जाकर चिल्लाने लगे उन्होने एक बार आँख खोल कर देखा और दीया मे चरणामृत बिल्वपत्र रखकर गित किया। वह चरणामृत देने के बाद विष समाप्त हो गया। कुछ देर के बाद जब वे शिनालय स घर में आए तब पूछा -'काहे चिल्लात रहले का भयल रहल पूजा मे बाधा देले'। लोगो ने कहा तब कदाचित् उन्हे घटना स्मरण हुआ। कभी-कभी तो भिक्षुक उन्हें पीट भी देते थे और वे हंसकर भगा देते कि किसी को ज्ञात न हो अन्यथा यह बुरी तरह पिटेगा। ऐसे अद्भत स्वभाव सम्पन्न का जब शरीर पूरा होन को हुआ तब उन्होने भोजन बन्द कर दिया और दो-तीन दिन बित्वपत्र गगा जल लेते रहे फिर बोलना भी बन्द कर दिया किसी व्याधि का लक्षण नही था, अपने एक मित्र को कुछ : गित किया वे समझ गए कि उनकी इन्ला केदारेश्वर मे जाने की है, तब लोग वहाँ ले गए मन्दिर की उत्तरी दालान में एक खम्भे से टिक कर वे बैठे (वह खम्भा मुझे पूज्य पिताश्री ने बताया था) और रात बीतते-बीतते देहत्याग कर दिया। उनके ज्येष्ठ पुत्र साह शीतल प्रमाद ने समयानुमार अ-छी शिक्षा पाई और वे श्री कुलदेवताय नमः : १८९