पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. . - क्वींस कालेज में अध्यापन करने लगे। यह सूचना पाकर एक दिन साहुजी क्वींस कालेज के अंग्रेज प्रिंसिपल के पास गए । एक भारतीय वृद्ध को देख उसने प्रश्न कि ।। 'बेल बुड्ढे क्या चाहते हो', 'एक सवाल का जवाब', बोलो, 'क्या आपके यहां पागल भी पढ़ाते है', 'हमारे यहां कोई पागान नही है', 'साहब जरा अपने मास्टर शीतल प्रसाद को बुलाइए' वे बुलाए गए और कमरे मे आते ही अपने पिता को देखकर सहमगए। साहब को कुछ असामान्य-सा लगा पूछा-'मिस्टर शीतन प्रसाद देखो ये क्या कहते है -' 'ये मेरे पिताजी है', 'बैठिए बैठिए ये शीतल प्रसाद बहुत अच्छा पढाते है हम इनको प्रोमोशन की सिफारिश कर चुके है', 'सो मब ठीक है पहले इनसे पूछिए इनके यहाँ कितने आदमी काम करते है' उस समय कारखाने में स्त्री-पुरुष मिलाकर डेढ सौ व्यक्ति रहे, वह उन्होने बताया 'तब आप ही बता कि जिमके यहां इतने आदमी काम करते हो वह दूसरी जगह नौकरी करे तो वह क्या पागल नही ? यह पढाएँ कोई हर्ज नही लेकिन तनरवाह न ल हां गरीब बच्चो की कुछ सहायता करें'। 'यह कैसे होगा सरकारी नियम है' 'तब जो तनरवाह दे इनसे रमीद लिखा कर अपनी मर्जी से बच्चो की मदद में खर्च करे' इम पर मास्टर साहब और प्रिमिपल सहमत हो गए और नौकरी बरकार रह गई। उनके अनज वैजनाथ प्रसाद अपने नियमित व्यवसाय में लगे रहे। उसी समय कोई काटे का मुकदमा रहा उसमे जिम दिन विजय हई उमी दिन श्री शिवरत्न माह को तृतीय पुत्र उत्पन्न हुए अत उनका नाम ही जित्तू पड़ गया। चतुर्थ पुन मेरे पूज्य पितामह श्री देवी प्रसाद रहे, पांचवे साहु गिरिजा शकर औ छठवे साह गौरी शार, और एक कन्या भी रही जिमका विवाह अहरौरा साहु पचू लाल के यहां हुआ। मेरे पूज्य पितामह के जीवन काल मे ही उनके तीनो अग्रंज दिवगत हो गा थे और अपने दो अनुजो को साथ लेकर वे दूकान कारखाना चलाते थे। ई० १९०० में उनके दिवगन हो जाने पर परिवार विघटन के कगार पर पहुंच गया और १९०३-१९०४ तक विपुल धन नाश के बाद जो निर्णय हुआ उसके अनुसार मरे ताऊजी साहु शम्भुरन एवम् पूज्य पिताश्री (जो तव अवयम्क रह) को मघनी साहु फर्म शिवालयो का प्रबन्धन और १९२००० रुपयो वह मामूहिक का ऋण दय मिला जिसका भुगतान ब्याज सहित पूज्य पिताश्री न १९१६-१७ तक कर दिया। अपने अग्रज के निधन के पश्चात् उनके सम्मुख प्रथम कर्नव्य इम म्ण का शोध और उसी के साथ-साथ ब्यवसाय का मन्तुलन और माहित्य मृजन रहा। अन्य कतिपय प्रमगो पर कुछ विस्तार से 'चित्राधार' के अथवृत्तक और 'कानन कुसुम' की अवतरणिका मे लिख चुका हूँ- यहाँ सक्षेप मे कुल का इतिहास मात्र उल्लेख्य रहा । इति शिवम् श्री पञ्चमी २०४८ -रत्नशंकर प्रसाद १९० : प्रमाद वाइमय