पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३०५

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आदरणीय प्रसादजी के प्रति -'निराला' हिन्दी के जीवन हे, दूर गगन के द्रुततर ज्योतिर्मय तारा-से उतरे तुम पृथ्वी पर; अन्धकार कारा यह, बन्दी हुए मुक्ति धन; भरने को प्रकाश, करने को जनमन चेतन जीना सिखलाने को कर्म निरत जीवन से, मरना निर्भय मन्दहासमय महामरण से; लोक सिद्ध व्यवहार ऋद्धि से दिखा गये तुम, छोड़ा है छिड़ने पर सुघर कलामय कुंकुम उठा प्रसंग-प्रसंगान्तर रंग रंग से रंगकर तुमने बना दिया है वानर को भी सुन्दर, किया मूक को मुखर, लिया कुछ, दिया अधिकतर, पिया गरल, पर किया जाति-साहित्य को अमर । तुम वसन्त-से मृदु, सरसी के सुप्त सलिल पर, मन्द अनिल से उठा गये हो कम्प मनोहर, कलियों में नर्तन, भौ रों में उन्मद गुंजन, तरुण-तरुणियों में शतविध जीवन-व्रत भुंजन, स्वप्न एक आंख में, मन में लक्ष्य एक स्थिर पार उतरने की संसृति में एक टेक चिर, अपनी ही आंखों का तुमने खींचा प्रभात, अपनी ही नई उतारी संध्या अलस-गात, तारक-नयनों की अन्धकार-कुन्तला रात, आई, सुरसंरि-जल-सिक्त मन्द-मृदु बही वात । कितनी प्रिय बातों से वे रजनी-दिवस गये कट अन्तराल जीवन के कितने रहे, गये हट । सहज सृजन से भरे लता-द्रुम किसलय-कलि-वल, जगे जगत के जड़ जल से वासन्तिक उत्पल । . संस्मरण पर्व : १