पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३०६

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. पके खेत लहरे, सोना ही सोना चमका, सुखी हुए सब लोग, देश में जीवन वमका, हुआ प्रवर्तन खुली तुम्हारी ही आँखों से उड़ने लगे विहग ज्यों युवक मुक्त पांखों से, खोये हुए राह के, भूले हुए कभी के बढ़े मुक्ति की ओर भाव पा अपने जी के। फूटा ग्रीष्म तुम्हारे जीवन का, दिङ्मण्डल तपा, चली लू, लपटें उठने लगीं, अमंगल; फैला, आहों से लोगों को पृथ्वी छाई बढ़ा त्रास, फिर अपलापों की बारी आई; रहित बुद्धि से लोग असंयत हुए अनर्गल किन्तु नहीं तुम हिले, तुम्हारे उमड़े बादल; गरजे सारा गगन घेर बिजली कड़का कर काँपे वे कापुरुष सभी अपने अपने घर । धारा झर झर झरी, घटा फिर फिर घिर आई सौ सौ छन्दों में फूटी रागिनी सुहाई, सावन की, निर्बल दबके दल-के-दल वे जन, अपने घर में करते भला बुरा आलोचन । भरी तुम्हारी धरा हरित साड़ी पहने ज्यों युवती देख रही हो नभ को नहीं जहाँ क्यों ? आई शरत तुम्हारी, आयत - पंकज - नयना हरसिंगार के पहन हार ज्योतिर्मय-अयना। एक बार फिर से लोगों को सिन्धु स्नात कर निकला हुआ दिखा काशी में 'इन्दु' मनोहर- विजय तुम्हारी, लिये हृदय में लाञ्छन सुन्दर अस्त हो गया कीर्ति तुम्हारी गा अविनश्वर । -निराला २: प्रसाद वाङ्मय