तत्सम्बन्धी बहुत-सी जिज्ञासाएं मेरे लिए स्वाभाविक थी। परन्तु सभी चर्चाओं में मैने अनुभव किया कि प्रसादजी दोनों के सम्बन्ध में आधुनिकतम ज्ञान ही नहीं, अपनी विशेष व्याख्या भी रखते हैं। वे कम शब्दों में अधिक कह सकने की जैसी क्षमता रखते थे, वैसी कम साहित्यकारों में मिलेगी। उनके बहुश्रुत होने का प्रमाण तो स्वयं उनका साहित्य है, परन्तु दर्शन, इतिहास, साहित्य आदि के सम्बन्ध में, इतने कम शब्दों में इतने सहज भाव मे वे अपने निष्कर्ष उपस्थित कर सकते थे, कि श्रोता का विस्मित हो जाना ही स्वाभाविक था। लोटने का समय देख जब मैंने विदा ली तो ऐसा नही जान पड़ा कि मैं कुछ घंटों की परिचित हूँ। प्रसादजी तांगे तक पहुँचाने आए और हमारे, दृष्टि के ओझल होने तक खड़े रहे। अपने माहित्यिक अग्रज को फिर देखने का सुयोग मुझे नही प्राप्त हो सका। वे कही आते-जाते नही थे और मैंने एक प्रकार,से 'क्षेत्र संन्यास' ले लिया था। और उसी बीच प्रमादजी के अस्वस्थ होने का समाचार मिला; पर बहुत दिनों तक किमी को यह भी ज्ञात नही हो सका कि रोग क्या है। अन्त में क्षय की सूचना भी हिन्दी-जगत के लिए चिन्ता का कारण नहीं बन सकी। हमारे वैज्ञानिक युग में नितान्त साधनहीन के लिए ही यह रोग मारक सिद्ध होता है। प्रमादजी के साथ साधनहीनता का कोई सम्बन्ध किसी को ज्ञात नहीं था, इसी से अन्त तक सबको उनके स्वस्थ होने का विश्वास बना रहा । जब 'कामायनी' का प्रकाशन हो चुका था और हिन्दी जगत एक प्रकार से पर्वोत्सव मना रहा था, तब उनके महाप्रयाण की बेला आ पहुंची। मैं स्वयं कई दिन से ज्वरग्रस्त थी। एक बन्धु ने भीतर सन्देश भेजा कि वे अत्यन्त आवश्यक सूचना लाये है। किसी प्रकार उठकर में बाहर के दरवाजे तक पहुंची ही थी कि मुना, प्रमादजी नही रहे ! कुछ क्षण उनके कथन का अर्थ समझने में लग गए और कुछ क्षण द्वार का सहारा लेकर अपने आपको संभालने मे । वार-बार उनका अन्तिम दर्शन स्मरण आने लगा और साथ ही साथ उस देवदारु का, जिसे जल की क्षुद्र धारा ने तिल-तिल काटकर गिरा दिया था। प्रसाद का व्यक्तिगत जीवन अकेलेपन की जैसी अनुभूति देता है, वैसी हमें किसी अन्य सम-सामयिक माहित्यकार के जीवन के अध्ययन से नहीं प्राप्त होती। उन्हें एक मम्पन्न पर ऋणग्रस्त प्रतिष्ठित परिवार में जन्म मिला और भाई- बहिनों में कनिष्ठ होने के कारण कुछ अधिक मात्रा में स्नेह-दुलार प्राप्त हो सका। किशोर अवस्था में वे एक ओर शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बादाम खाते और कुश्ती लड़ते रहे और दूसरी ओर मानमिक विकास के लिए कई शिक्षकों से संस्कृत, . ६ : प्रसाद वाङ्मय
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