ऊँचा और प्रशस्त; बाल न बहुत घने न बिरल, कुछ भूरापन लिये काले; चौड़ाई लिये मुख; मुख की तुलना में कुछ हल्की, सुडौल नासिका; आँखों में उज्ज्वल दीति ओठों पर अनायास आनेवाली बहुत स्वच्छ हंसी; सफेद खादी का धोती-कुरता। उनकी उपस्थिति में मुझे एक उज्ज्वल स्वच्छता की वैसी ही अनुभूति हुई, जैसी उस, कमरे में सम्भव है जो सफेद रंग से पुता और सफेद फूलों से सजा हो ! उनकी स्थविर जैसी मूर्ति की कल्पना खंडित हो जाने पर मुझे हंसी आना ही स्वाभाविक था। उस पर जब मैंने अनुभव किया कि प्रसादजी ही सुंघनी साहु हैं, तब हंसी को रोकना असम्भव हो गया। उन दिनों में बहुत अधिक हंसती थी, और मेरे सम्बन्ध में सब की धारणा थी कि मैं विषाद की मुद्रा और डबडबाई आँखों के साथ आकाश की ओर दृष्टि किये, हौले-हौले चलती और बोलती हूँ ! मेरी हँसी देखकर या मुझे मेरे भारी-भरकम नाम के विपरीत देखकर प्रसादजी ने निश्च्छन्न हंसी के साथ कहा-"आप तो महादेवी जी नहीं जान पड़ती !" मैंने भी वैसे ही प्रश्न में उत्तर दिया- -"आप ही कहाँ कवि प्रसाद लगते हैं, जो चित्र में बौद्ध भिक्षु जैसे हैं।" उनकी बैठक में ऐसा कुछ नही दिखाई दिया, जिसे सजावट के अन्तर्गत रखा जा सके। कमरे में एक साधारण तख्त और दो-तीन सादी कुर्सियां, दीवाल पर दो-तीन चित्र, अलमारी में कुछ पुस्तकें । यदि इतने महान कवि के रहने के स्थान में मैंने कुछ असाधारणता पाने की कल्पना की होगी तो मेरे हाथ निराशा ही आई। उन दिनों वे 'कामायनी' का दूसरा सर्ग लिख रहे थे। क्या लिख रहे हैं, पूछने पर उन्होंने प्रथम सर्ग का कुछ अंश पढ़कर सुनाया। वेदों में अनेक कथानक बहुत नाटकीय हैं और उनमें से किमी पर भी एक अच्छा महाकाव्य लिखा जा सकता था। उन्होंने ऐसा कथानक क्यों चुना है, जिसमें कथासूत्र बहुत सूक्ष्म है - ऐसी जिज्ञासाओं के उत्तर में उन्होंने कामायनी सम्बन्धी अपनी कल्पना की कुछ विस्तार से व्याख्या की। उनकी धारणा थी कि अधिक नाटकीय कथाओं की रेखाएं इतनी कठिन हो गई हैं कि उन्हें अपने दार्शनिक निष्कर्ष की ओर मोड़ना कठिन होगा। युग की किसी समस्या को प्राचीन कलेवर में उतारना तभी सम्भव हो सकता है, जब प्राचीन मिट्टी लोचदार हो। जो प्राचीन कथा कठिन होकर एक रूप-रेखा पा लेती है, उसमें वह लचीलापन नहीं रहता जो नई मूर्तिमत्ता के लिए आवश्यक है। इन्द्र का व्यक्तित्व उनकी दृष्टि में बहुत आकर्षक और रहस्यमय था परन्तु उसकी नाटकीय और बहुत कुछ रूढ कथावस्तु, कामायनी के संदेश को वहन करने में असमर्थ थी। ऋग्वेदकालीन वरुण के व्यक्तित्व और विकास के सम्बन्ध में भी उन्होंने अपना विश्लेषण दिया। वैदिक साहित्य और भारतीय दर्शन मेरा प्रिय विषय रहा है, अतः संस्मरण पर्व: ५
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