पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३१३

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स्पर्श किया है। करुण-मधुर गीत, अतुकान्त रचनाएँ, मुक्त छन्द, खंड-काव्य, महाकाव्य, सभी उनके काव्य के बहुमुखी प्रसार के अन्तर्गत हैं। लघु कथा के वैचित्र्य से लम्बी कहानियों की विविधता तक उनका कथा-साहित्य फैला है। 'कंकाल' उपन्यास के विषम नागरिक यथार्थ से 'तितली' की भावात्मक ग्रामीणता तक उनकी औपन्यासिक प्रतिभा का विस्तार है । एकांकी, प्रतीक रूपक, गीति नाट्य, ऐतिहासिक नाटक आदि मे उन्होंने नाटकीय स्थितियों का संचयन किया है। उनका निबन्ध-साहित्य किसी भी गम्भीर दार्शनिक चिन्तक को गौरव देने में समर्थ है । साहित्यिक प्रतिभा के साथ उनकी व्यवहार बुद्धि भी कुछ कम असाधारण नहीं थी। धूमिल नये युग के काव्य और विचार को आलोक की पृष्ठभूमि देने के लिए ही उन्होंने 'इन्दु' और 'जागरण' जैसे पत्रों की कल्पना को मूर्त रूप दिया। 'भारती भण्डार' का जन्म भी उनकी उसी बुद्धि का परिणाम है, जिसने युग की प्रत्येक सम्भावना को परखकर उसका उचित दिशा में उपयोग किया। उनका जीवन, उनके कार्य को देखते हुए, घट में समुद्र का स्मरण दिलाता है। बुद्धि के आधिक्य से पीडित हमारे युग को, प्रसाद का सबसे महत्वपूर्ण दान 'कामायनी' है-अपने काव्य-सौन्दर्य के कारण भी और अपने ममन्वयात्मक जीवन- दर्शन के कारण भी! भाव और उसकी स्वाभाविक गति से बननेवाले जीवन-दर्शन में सापेक्ष सम्बन्ध है। बहती हुई नदी का जल आदि से अन्त तक, ऊपर से कही तरंगाकुल. कहीं प्रशान्त मन्थर जल ही दिखाई देता है; परन्तु वह तरलता किसी शून्य पर प्रवाहित नही होती। वस्तुत: उसके अतल-अछोर जल के नीचे भूमि की स्थिति अखंड रहती है। इसी से आकाश के शून्य से उतरनेवाले मेघ-जल को हम बीच में तटों से नही बांध पाते, पर नदी के तट उसकी गति का स्वाभाविक परिणाम है। भाव के सम्बन्ध में भी यही सत्य है ! जिसके तल में कोई संश्लिष्ट जीवन-दर्शन नहीं है, उसे आकाश का जल ही कहा जा सकता है। जीवन को तट देने के लिए, उसके आदि की इकाई को अन्त को समष्टि में असीमता देने के लिए ऐसे दर्शन की आवश्यकता रहती है, जिस पर श्रेय, प्रेय मे तरंगायित होकर सुन्दर बन सके। यदि कोई भाव-धारा ऐसी संश्लिष्ट दर्शन-भूमि नही पाती तो उसके स्थायित्व का प्रश्न संदिग्ध हो जाता है। यह दर्शन महाकाव्य की रेखामी से जिस विस्तार तक पहुंच सकता है. उस विस्तार तक गीत से नही ! छायावाद युग मे भाव के जिस ज्वार ने जीवन को सब ओर से प्लावित कर दिया था, उसके तट और गन्तव्य के सम्बन्ध में जिज्ञासा स्वाभाविक थी। और इस जिज्ञासा का उत्तर 'कामायनी' ने दिया। संस्मरण पर्व : ९