पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३१७

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आज की परिस्थितियां नहीं थीं, आज का विज्ञान नहीं था जिस प्रकार की स्थिति में उन्होंने लिखा है उसमें निश्चय ही उनकी उस विधायिनी प्रतिभा ने बहुत आगे देख लिया है और जितना समय बीतता चला जायेगा, आप देखेंगे कि कामायनी में हमारे बहुत से प्रश्नों का समाधान मिलता जायेगा। वे बुद्धि और हृदय के संघर्ष की ही बात नहीं करते, जीवन की बहुत गहराई से, जीवन की एकता की बात कथा कहते हैं । और ऐसे नहीं कहते कि किसी को पराई लगे, किसी भी देश के व्यक्ति को वह पुस्तक थमा दीजिए, कहिए आप उसे पढ़ें, वो कभी नहीं कहेगा कि ये भारत की ही है और अनेगा विदेशियों से जब मेरी बातचीत हुई और उन्होंने कामायनी का अर्थ समझा, बहुतों ने बहुत अच्छी तरह समझा। तब, उन्होंने कहा कि अरे ! यह तो वही बात कहती है जो किसी भी देश का महान् कवि कहता है। जो मानवता के कल्याण के लिए मानवता के ऐसे युग में जब विज्ञान ने उसे निकट लाकर भिन्न कर दिया है-कही गई है । पार्थिव रूप से वह निकट है, पार्थिव रूप से वह सारी दूरी समाप्त हो गई है लेकिन अंतर-जगत में एक दूसरे से भिन्न, एक दूसरे का शत्रु है, एक दूसरे का विरोधी है। ऐसे युग में कामायनी में जो संदेश है -'बिना गम्था के मनुष्य विकास कर ही नही सकता, जीवन विकास कर ही नहीं सकता, उसकी सारी शक्ति उसकी आस्था में ही है, भटकने में नही है' - और ये संदेश कामायनी निरन्तर देती रहेगी। यह मत्य है कि उममें भारत के सब दर्शन समग्र हो गए हैं, लेकिन अब जो दर्शन है, आधुनिक युग का-वह प्रसाद की देन है और वह देन निरन्तर ही मनुष्य के लिए मूल्यवान रहेगी, चाहे जिस दिशा से उसे देखा जाय, चाहे कभी भी उसे देखा जाय । हृदय से वे भावुक कवि थे। और भावुक कवि के लिए संवेदन का घनत्व आवश्यक होता है। संवेदन इतना सघन हो, इतना अधिक घनत्व उसमें हो और संयम इतना अधिक हो चेतना का कि वो घनत्व पिघल न जाए, बिखर न जाए। विद्युत् को जैसे हम वांध लेते हैं तो आलोक हो जाता है और जो ऐसे ही बिजली गिरे तो धरती को विदीर्ण कर देती है। इसी प्रकार वह संवेदन, वह सघन संवेदन जब चेतना से संयमित होकर आता है जब बुद्धि से संयमित होकर आता है तब इतना बड़ा कवि जैसे प्रसाद थे, उत्पन्न होता है । हमारे यहां कवि को 'परिभूः स्वयम्भूः' कहा गया है उसे हम अपनी इच्छा से नहीं उतार सकते, अपनी इच्छा से नहीं बना सकते। ऐसा कोई यन्त्र नहीं है कि जिससे हम दूसरा तुलसीदास बना लें, दूसरा सूरदास बना लें, दूसरी मीरा बना लें, हम नहीं बना सकेंगे। इसी प्रकार हम दूसरा प्रसाद भी नहीं बना सकते। नियति की कोई ऐसी अज्ञात प्रेरणा, अथवा प्रकृति का कुछ ऐसा नियम है कि जिससे धरती के जिस खंड की मानवता को कुछ कहना होता है, कहने के लिए इतना एकत्र हो जाता है कि 1 संस्मरण पर्व : १३