पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३१६

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1 इतने बड़े कवि थे कि उनका संवेदन जब व्यक्त होता था तो उतनी विराट चेतना लेकर व्यक्त होता था। कवि स्रष्टा होता है, द्रष्टा होता है, दार्शनिक नहीं होता। दर्शन तो बुद्धि की एक क्रिया है। संसार को समझने की हमारी जिज्ञासा की प्रवृत्ति जब बुद्धि के माध्यम से चलती है तो हम दर्शन की स्थापना करते है । एक परम्परा बना लेते है। साख्य का दर्शन है, वोग का दर्शन है, वेदान्त का दर्शन है। हमारी बुद्धि ने तो जीवन के सम्बन्ध मे, जगत के सम्बन्ध मे, जड़ के सम्बन्ध मे, चेतन के सम्बन्ध मे अपनी जिज्ञासाएं शान्त करने के लिए, उनका समाधान पाने के लिए, कुछ मान्यताएं, कुछ अनुसन्धान एकत्र कर दिये। वो दर्शन हो गया। कवि इस प्रकार के दर्शन में विश्वाम नहीं करता और उसका कारण है । द्रष्टा तो जो जीवन की पद्धति है उसकी अनुभूति करता है। उसका दर्शन भावी दर्शन है। अनुभूत दर्शन, और यह दर्शन बहुत व्यापक होता है । जो घटित हो चुका है, वह तो अतीत है, माधारण जन उसका अनुभव नही कर सकेगा। जो अनागत है वह भावी कल्पना है, उसका अनुभव भी साधारण जन नहीं कर सकेगा। लेकिन जो द्रष्टा है वह उस अतीत को भी अपनी अनुभूति मे ले आता है, अनागत को भी ले आता है। इसलिए केवल यथार्थ नही, संभाव्य यथार्थ भी उसकी अनुभूति के अन्दर आ जाता है । तो वह 'दर्शन' ही, एक ऐमी विशाल वस्तु है, ऐसा निर्माण है, ऐसा सृजन है कि जो केवल दर्शन में नही वैधता। दर्शन के बहुत से प्रभाव हो सकते है । हरेक कवि के पास जीवन का एक दर्शन है। तो जैसे हम अपने आहार मे न जाने कितनी वस्तुएँ लेते है, मधुर लेते है, तिक्त लेते है. क्टु लेते है, कषाय लेते है, कुछ भी लेते है, परन्तु जीवन का रस तो एक बनता है। अब उसमे अगर आप भिन्न-भिन्न करके देखना चाहे कि इस मधुर को जो हमने अपने शरीर मे पहुँचाया, इसका ये रस है और जो इस तिक्त को पहुंचाया है इसका ये रस है तो आप नही निकाल पायेगे क्योंकि वह एक हो गया। वह केवल जीवन का रस है। और कहाँ-कहाँ से किस- किस प्रकार से आया है-ये आप नही निकाल सकते। जैसे आप किसी पौधे में से नही निकाल सकते कि धूप का कितना अंश है, मिट्टी का कितना अंश है, जल का कितना अंश है। ऐसे आप नही निकाल सकते है। जैसे गंगा में जितनी धाराएँ मिल गई हैं अब आप नही निकाल सकते। मिल गई, एक हो गई ।' उसी तरह जिस देश में जो कवि रहता है उस देश की परम्परा उसकी संस्कृति उसका धर्म, उसको धारणा उसका विश्वास न जाने कितना जो मनुष्य को मिलता है, उत्तरा- धिकार में मिलता है वंशानुक्रम से मिलता हैं उन सबको वह आत्मसात् कर लेता है, पर उसकी जो विधायिनी शक्ति प्रतिभा है-वह उसके पार देखती है। इसी से कामायनी में आज आप जब उसे पढने बैठते हैं तो ऐसा लगता है कि आज की बात प्रसाद ने कैसे कही होगी, उस समय तो ये परिस्थितियां नहीं थी। १२: प्रसाद वाङ्मय