अद्भुत दृश्य कभी देखा न था। बाज के चंगुल में बुलबुल की भांति निराला के पंजे में उनकी नीली नसोंवाजी पतली कलाई बल खा रही थी। निराला उखड़ी-खड़ी आवाज में बैसवाड़ी में बोल रहे थे और वह पल्लव की भूमिकावाली सुललित हिन्दी में । मैं पूर्वापर का ज्ञान न होने के कारण हैरान था। मेरी परेशानी प्रसाद जी समझ रहे थे, पर पूछने पर कुछ बतलाते न थे, (जब कि अभी-अभी मैं उनसे निराला जी के 'सरस्वती' के मुख-पृष्ठ पर सद्यः प्रकाशित, गीत-'सकल गुणों की खान प्राण तुम' का निराला जी के समक्ष, अर्थ पूछ-समझ रहा था) बस, मुस्काते जाते थे। आज मेरे आश्चर्य की सीमा न थी कि जीवन की अतल गहराइयों से रस ग्रहण करने वाला महाकवि 'मत चूको चौहान' वाले मतही धरातल से कौन-सा रस ले रहा था। व्यास जी के बीच-बिचाव करने पर सूखी कलाई सात्त्विक स्वेद से बिछल कर अलग हो गई। शान्तिप्रिय जी नमस्कार कर चलते बने । फिर तो ऐसा अट्टहास गूंजा कि आसपास का विजातीय वातावरण तुहिन-कणों के उड़ते स्वन से ऊपर तक भर गया। मैंने 'मन्वन्तर' नाम से कामायनी की कुछ पंक्तियाँ 'माधुरी' मे पढी थी। यों भी जब काशी मे ही रहा था, श्यामल लोक मे कर्म-चक्र के अरे की तरह घूमते रहने पर भी कभी-कभी प्राप्य से अधिक तृप्ति कैसे न मिलती ? मै शास्त्रों को रेगिस्तान नहीं मानता, अब ओस चाट कर प्यास बुझानेवालों को वे कब्रिस्तान भी जान पड़े, तो भटकती रूहों की सौगन्ध, मैं उन्हे छेड़कर शास्त्रार्थ नही करना चाहता । निष्काम को मुक्ति चाहिए; किन्तु सौन्दर्य और आनन्द की कामना, रस की साधना अपने शाब्दिक चमत्कार से भी कुछ अधिक आकर्षक और सहज प्रतीत होती है। करने को, चैतन्व इस माध्यम से अपने प्रकृत रूप की प्रत्यभिज्ञा करता है । उस दिन प्रसाद जी के अध्ययन-कक्ष मे काव्य-गोष्ठी जमी। श्रोताओं में सबसे बड़े आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी थे और सबसे छोटा मैं था । शेष थे पं० वाचस्पति पाठक, पं० विनोद-शंकर व्यास, प० लक्ष्मीनारायण मिश्र, कुंवर चन्द्रप्रकाश सिंह, नरेश, परमानन्द वाजपेयी आदि । पहले निराला ने तुलसीदास ('सुधा' में, धारा- वाहिक रूप में प्रकाशित) नामक छह सौ पंक्तियों को अपनी लेटेस्ट कविता आङ्गिक, वाचिक और सात्त्विक अभिनयो-समेत सुनाई । यों अभी एक दिन मालवीय जी महाराज को भी सुनाई थी और महात्मा गांधी से थोड़ी ही भिन्न प्रतिक्रिया देखने को मिली थी। वसे मालवीय जी को रस ले-लेकर मनोरंजन जी की 'फिरंगिवा' और सोहनलाल जी द्विवेदी की 'महागणा प्रताप' कविता सुनते मैंने अपनी आँखों देखा था। आज की बात और थी। आज सब के सब एक ही घाट का पानी पीनेवाले इकठे थे। तभी तुलसीदास रंग पर रंग और रंग पर जीवन संस्मरण पर्व : २५
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