अवसर पर आयोजित सभा में उन्ही के पास बैठा हुआ था। सुना था, वह अपने सम्बन्ध में पूछे गए प्रश्नों को टाल जाते है, मैने साल-दो-साल तक अपनी आयु के अनुरूप छोटे-छोटे प्रश्नों मे भी उन्हे गहरी दिलचस्पी लेते देखा था। अब झूठ के पुल बांधनेवालो से कोई कितना माथा टकराए ! यह सच है कि वह कृष्णानन्द गुप्त- ऐसो का प्रतिवाद नही करना चाहते थे; माइक पर गलाफाड़ भाषण देकर श्रोताओं को अभिभूत नही करना चाहते थे। किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के समान महारथी जब 'रहस्यवाद' पर लिखते हुए अपने हाथ से छूट जाते थे तब उनकी लेखनी सत्य का उद्घाटन करते झिझकती भी न थी। इसी प्रकार मुझ-जैसे निरीह जिज्ञासु के बालोचित प्रश्न पर तिनकते, तिलमिलाते किसी ने भी न देखा होगा उन्हे। 'समालोचक' मे पढ़ा था कि प्रसाद जी का 'कामना' नाटक (मैंने इसे रङ्गमंच पर सफलता पूर्वक अभिनीत होते देखा था) कवित्व-पूर्ण क्लिष्ट भाषा के कारण असफल है। भवभूति और मुगरि के नाटक जिसे कण्ठाग्र हों उसे किसी की भी भाषा क्लिष्ट नही, सहज-सरल ही प्रतीत होती, यहाँ मेरे लिए अटकाव-भटकाव की गुंजाइश न थी; किन्तु उसमे एक टिप्पणी थी कि कामना Red Orleans के आधार पर बनी है। ढंग 'प्रबोध-चन्द्रोदय' और Pilgrim's Progress का है। यही मैंने प्रसाद जी से पूछा तो बोले : "आपने इनमे से कौन-कौन-सी पुस्तके पढी है ?" कहाँ तो मेरे बचपने ने वह धाक बांधी थी कि कोई और सुने तो गर्द हो जाय और प्रसाद जी पर भी कम-से-कम मेरी अध्ययनशीलता का मन्त्र चल जाय, मगर यहां तो लेने के देने पड़ फिर उन्होंने अपनी मौलिक मुस्कान जुबान मे घुलाकर पूछा : 'प्रबोध चन्द्रोदय' तो पढ़ा होगा? मैंने भी संभल कर केचुल बदली : 'जी हां, प्रबोध चन्द्रोदय ही क्यों, चैतन्य- चन्द्रोदय भी पढा है। किन्तु जैसे 'चण्डकौशिक' का रूपान्तर 'सत्य हरिश्चन्द्र' है, 'कामना' वैसी तो नहीं है। वस्तुसाम्य भी आंशिक ही है।' "अब और दोनो पुस्तके भी पढ़ डालिए। हिन्दी आलोचना संस्कृत-समीक्षा की भांति सैद्धान्तिक ही नही होती।" एक दिन सरेशाम बादाम की ठंढई पी-पिला कर निराला जी के साथ बाहर निकले और घूमते-फिरते नारियल बाजार वाली सुर्ती-सुंफ्नी की दूकान पर आ गए। उनके साथ पं० विनोद शङ्कर व्यास थे और, कहना न होगा, मैं भी था। कुछ ही क्षण बीते होगे कि श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी आ गए। निराला पर दृष्टि पड़ते ही वह सहम-से गए और उनकी अकुतोभय सजल वाणी भय से सूखने लगी। मैंने ऐसा २४: प्रसाद वाङ्मय
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