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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३१

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. स्पष्ट है, कामायनी में सुख-दु.ख के ऊपर आनन्द की प्रतिष्ठा उन्होंने प्रत्यभिज्ञा- दर्शन, तन्त्रालोक या सौन्दर्य-लहरी का निचोड़ लाने के अभिप्राय से नहीं की थी, वह उनकी अपनी उपलब्धि थी। पहले 'हंस' मे प्रकाशित 'प्रलय की छाया', अधूरी 'इरावती', हिन्दी-हिन्दुस्तानी आदि कई नए-पुराने विषयों पर वह बोलते रहे । चन्द्रप्रकाश जी साक्षी हैं, उन्होंने हिन्दी के कतिपय महारथियों के सम्बन्ध मे कैसी-कैसी बात कही थी। किन्तु उनका सबसे मार्मिक उद्गार राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बन्ध में था, जो उन्होंने मृत्युशय्या से प्रकट किया था "जब हम तरुण थे, पूरे ओज और तेज से हिन्दुस्तानी के विरुद्ध लडते रहे थे, अब तो कूच करने का समय आ गया, कोन अपना रक्त-स्वेद एक कर लड़ेगा उसके लिए ? निश्चय ही मैं सर्जनात्मक संघर्ष का विश्वासी हूँ, कोरे वाग्युद्ध का नही ।" रत्नशंकर जी चिन्तित हो रहे थे, हमे स्वयं उन्हे थका देने का आन्तरिक संकोच था। पर उपाय भी क्या था ? शकर के जटाजूट मे निकली गंगा का आवेग भला कौन रोक सकता था ? मैंने सजल ष्टि की अजलि प्रणिपात-पूर्व अर्पित करते हुए कहा : जब तक रामचरितमानम और कामायनी है, हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा रहेगी ! संस्मरण पर्व : २७