पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३५

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दूकान के सामने एक दासे पर बैठा करते। उनके मित्र और मिलने वाले भी वहाँ पहुंच जाते और छोटी मोटी गोष्ठी हो जाती। वहां के आसपास के लोग भी उनका बहुत सम्मान करते थे। प्रसादजी कोरे कवि ही न थे, कुशल व्यवहार-बुद्धि भी रखते थे। गोष्ठी मे भिन्न-भिन्न रचनाएँ होती थी। कभी-कभी वाद-विवाद भी हो जाता था। परन्तु अधिकतर अट्टहाम ही गूंजा करता। बीच-बीच मे ऊपर रहने वाली वेश्याएं भी चौक कर नीचे झांका करती। एक बार निरालाजी और नवीनजी के काशी आने पर उन्होने, कुछ लोगो को ब्यालू के लिए घर बुलाया। स्वर्गी' मुशी अजमेरी भी मेरे माथ थे। हम लोग सन्ध्या को ही जा जमे। निगलाजी सुन्दर गायक भी है। अजमेरी का कहना ही क्या। बालकृष्णजी का भी कण्ठ मधुर है। कविता और गान दोनो मे वातावरण गूंज उठा। निरालाजी मे भी कोई हिन्दी या वगला गीत गाने को कहा गया तो उन्होने कहा, मै क्या गाऊँ ? मृदग न सही, तबला बजाने वाला भी तो कोई हो। माज बजाने वाला कोई साहित्यिक वहाँ न था। प्रमादजी चाहते तो तुरन्त किसी को बुला सक्ते थे। परन्तु वे मुसकरा कर रह गये। नवीनजी ने भृकुटीभग किया, मैंने समझा निरालाजी के मन में उमग नहीं है। नही तो ? मन आई हुलक का खजरी का दुलक एक दो बार फिर निरालाजी मे कहा गया- रेमे ही होने दीजिए। परन्तु वे गुरु गम्भीर बन कर अपनी पहली ही बात दुहराते रहे। नवीनजी से न रहा गया, सहसा बोल उठे -बडे गवैये बने है। अजमेरीजी बिना नबले के गा सकते है, तुम नही गा सकते तो... क्षण भर सन्नाटा हो गया। निरालाजी पहले हसे, फिर तुरन्त उन्होने गाना आरम्भ कर दिया। भिन्न-भिन्न प्रकार के आठ-काठ इकट्ठे करके कभी-कभी कुटिल हंसी-हंसते हुए प्रसादजी आनन्द उठाते थे। बात बढ़ जाती तब अपनी कुशलता से वे सबको शान्त भी कर दिया करते थे। मस्कृत की एक उक्ति है जिसका अर्थ है भूखा व्याकरण नही खाता और प्यामा काव्य रस नही पीता। यह सर्वथा सत्य है। एक दिन हम लोग सबेरे ही स्वर्गीय केशव प्रसादजी मिश्र से मिलने भदैनो चले गये थे। उन दिनो चाय-पानी भी नही करते थे। वहां बातो मे कुछ विलम्ब हो गया लौटते हुए रत्नाकरजी को भी जुहारना था। कवि को श्रोता से बढकर और क्या चाहिए। रत्नाकरजी कविता सुनाने लगे तो रंग मे आकर अक्षय भण्डार ही खोल बैठे। वे जैसा सुन्दर लिखते थे संस्मरण पर्व : ३१