उन्होंने कही परन्तु जहाँ तक मैं जानता हूँ, ऐसा कौतुक न तो उन्होंने स्वयं देखा, न दूसरों को दिखाया। अपने भानजे स्वर्गीय अम्बिका प्रसाद के द्वारा, अपनी आर्थिक सहायता से 'इन्दु' नामक एक मासिक पत्र उन्होंने निकलवाया था। अधिकतर वे उसी में लिखा करते थे। अम्बिका प्रसादजी के आग्रह से मैंने भी दो-एक रचनाएँ उसके लिए भेजी थीं। सम्भवतः प्रसादजी ने भी ब्रजभाषा मे लिखना आरम्भ कर के अन्त में बोलचाल की भाषा को ही अपना लिया था। परिचय बढ़कर स्नेह मे परिणत हो गया। यह मेरा सौभाग्य ही था कि कवि के रूप मे आहत न होने पर भी मैं उनका स्नेह भाजन बन गया। मेरे काशी पहुंचने का समाचार उन्हें पहले ही से मिला रहता। वे ब्राह्मण के हाथ की बनाई हुई भी कच्ची रसोई न खाते थे। इसलिए कुछ पहले ही दोपहर का भोजन करके वे अपनी पालकी गाड़ी में बैठकर कृष्णदास के बंगले पर आ जाते और रात तक वही रहते। कभी-कभी हम साथ ही नगर मे जाते और प्रायः आधी रात तक मैं और कृष्णदास बंगले पर लौट पाते। बड़ों-बड़ों को एक बार आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। उस समय लोग बहुधा अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते है। परन्तु प्रसादजी ने बड़ी धीरता और बुद्धिमत्ता से अपना काम-काज मंभाला। ऋण चुकाने के लिए शीघ्र ही उन्होंने अपना एक गांव बेच दिया। घोड़ा-गाड़ी भी नहीं रखी। इस विषय की चर्चा मे मैंने उनकी बड़ी सराहना की और कहा-यदि ऐसा न किया जाता तो ब्याज मे ही सारी सम्पत्ति स्वाहा हो जाती। मैं स्वयं भुक्तभोगी था और एक-एक के आठ-आठ तक देने को विवश हुआ था। , उनकी दूरदर्शिता सचमुच प्रशंसनीय थी। पूछने पर वे किसी विषय में बहुत अच्छी राय दे सकते थे। मैं समझता हूँ, आर्थिक दृष्टि मे प्रमादजी की और प्रेमचन्दजी की एक तुलना की जा सकती है। प्रेमचन्दजी अपने जीवनकाल मे प्रसादजी की अपेक्षा अधिक अभावग्रस्त रहे। परन्तु इन दोनों बड़े साहित्यकारों के साहित्य का लाभ इन्हें नहीं, इनके भाग्यशाली पुत्रों को ही मिला। कृष्णदास ने ठीक ही कहा था, प्रसादजी की कृतियां आज की नही, आगामी कल की है। प्रसादजी के साथ न जाने कहां-कहां की बातें हुआ करती थी। परन्तु अपनी- अपनी रचनाओं के विषय में कभी भूले भटके ही हम लोग चर्चा करते। हां, कभी- कभी वे अपनी रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ अवश्य मुझे दे जाते थे और मुझे इस बात का गर्व है कि छपने के पहले ही मैंने उनका रमास्वाद पा लिया था। उनकी दूकान नारियल बाजार में है। सन्ध्या को प्रसादजी वहाँ जाते और ३०:प्रसाद वाङ्मय
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