पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३७

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....NO . 'बैठ शिला की शीतल छह """देख रहा था प्रकृति प्रवाह एक बार उन्होंने मुझे बताया-लोग बार-बार मुझसे मेरी रचनाओं के आशय पूछ कर मुझे अस्थिर किया करते हैं। एक ऐसे ही जिज्ञासु से मैंने कह दिया जिस मूड में आकर मैंने यह कविता लिखी थी, उसी में मैं जब तक न जाऊँ तब तक कैसे समझाऊँ। हम दोनों हंसने लगे। ऐसी ही बात भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कही थी, जब महाभारत के युद्ध के अन्त में शोकाकुल होकर युधिष्ठिर ने उनसे प्रार्थना की थी मुझे भी एक बार गीता का उपदेश देने की कृपा कीजिए। प्रसादजी ने इसी प्रसंग में एक बार कहा था कभी-कभी कोई भाव अस्पष्ट रूप से सामने आता है तो उसे भी हम ले लेते हैं, छोड़ते नही। सम्भव है आगे चलकर लोग उसे विकसित करके सुन्दर रूप में व्यक्त कर सकें। मुझे यह देखकर सन्तोष हुआ था कि 'कामायनी' में भी एक सगै गीतमय है और उसमें भी सूत कातने की बात कही गयी हैं । 'साकेत' में सीता के मुख से कातने-बुनने की बात सुनकर एक समालोचक टीका टिप्पणी करने से नहीं चूके थे। अतुकान्त कविता के लिए उन्होंने पहले अरिल्ल छन्द चुना था। उस पर मेरा मत भी जानना चाहा था। मैंने कहा-सुकुमार भावों के लिए ही वह छन्द मुझे उपयुक्त लगता है। घनाक्षरी सब रसों के उपयुक्त समझकर उसी के एक भाग को मैंने ले लिया था और उसी में 'मेघनाद वध' का अनुवाद किया था। कहने की आवश्यकता नही कि बंगला के पयार छन्द की भांति यह भी वर्णवृत हैं। संस्कृत का अनुष्टुप भी वर्णवृत है। सियाराम शरण ने मेरे प्रयुक्त छन्द को और भी विभक्त करके नये रूप में उसका प्रयोग किया । मै नही कह सकता मेरे स्नेह के कारण अथवा उपयुक्तता के कारण प्रसादजी ने भी उस छन्द मे कुछ लिखा है। प्रसादजी रवीन्द्रनाथ की बंगला रचनाओं से प्रभावित थे, इस कथन का उन्होंने मुझसे यह कहकर विरोध किया था कि मै बंगला भाषा जानता ही नहीं हूँ। यह ठीक बात है । एक बार एक बंगला पुस्तक के कुछ अंश उन्होंने मुझसे सुने थे और अपनी समझ के अनुसार मैंने उनका अर्थ भी उन्हें बताया था। बंगला जानना उनके लिए, सरल था, परन्तु जान पड़ता है, उस ओर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। एक बार स्वर्गीय पं० पद्मसिह शर्मा काशी आये थे । कृष्णदास के शान्ति कुटीर में छोटी-सी गोष्ठी हुई । रमाकरजी और प्रसादजी भी थे । मैंने पण्डितजी के आदेश पर 'साकेत' का अष्टम सर्ग पढ़ कर सुनाया। उसके अन्त में उमिला-लक्ष्मण के १. वहां वस्तुतः प्रलय है, प्रकृति नहीं। eu संस्मरण पर्व : ३३