पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३८

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मिलन सम्बन्धी दो तीन पर हैं। उन्हें सुनकर प्रसादजी ने मुझसे कहा था-तुमने प्रसंग तो बड़ा मार्मिक और सुन्दर छेड़ा । परन्तु. उसमे तुम्हारी असमर्थता भी झलकती है । बहुत थोड़े में तुमने उसको समाप्त कर दिया। मैंने उत्तर मे कहा- तुम्हारी बात ठीक हो सकती है। परन्तु मुझे तो ऐसा लगता है कि मैंने फिर उसे छेड़ा और वह फूल की भांति झडकर बिखरा ! यह मेरी असमर्थता है तो उसे स्वीकार करने मे मुझे आपत्ति नही। उन्होंने फिर कहा-अरे, एक आलिंगन भी नही ! धुत् ! एक दिन मिलते ही उन्होने मुझसे कहा-आज रत्नशंकर से किसी ने पूछा - तुम्हारे पिता ने 'आँधी' लिखी है, तुम क्या लिखोगे ? उसने छूटते ही उत्तर दिया- 'अन्धड'। मैंने हंसकर कहा-प्रभु करे ऐसा ही हो। पुत्रादिच्छेत् पराजयम् । आयुष्मान् रत्नशंकर को यह बात स्मरण रखनी चाहिए।' मेरे लिए यह गौरव की बात है कि उन्होने मुझे अपनी कुछ अन्तरंग बाते भी बता दी थी। परन्तु किसी की गोपनीय बाते कहना उसके प्रति विश्वासघात करना है । यहाँ सत्य की दुहाई मिथ्या है। केवल एक बार ही उन्हे मेरे विषय मे सन्देह हुआ था फलस्वरूप कुछ दिन वे मुझमे खिचे रहे। एक समीक्षक ने उनके विरुद्ध बहुत कुछ लिखा । लिखने वाले मुझसे सम्बन्धित थे। ऐसी स्थिति मे यह स्वाभाविक ही था कि उस कार्य मे उन्हे मेरा हाथ जान पडा। इसके लिए मैं उन्हे कैसे दोष दूं। मैंने आलोचक से कहा भी था कि इसका दोष मुझ पर आवेगा। वे बोले-आप कहिए तो मैं अपना निबन्ध न छपाऊँ परन्तु इससे मेरे अन्तरात्मा को कष्ट होगा। और मैं अपने को कर्तव्यच्युत समझंगा। मैंने कहा-ऐसी बात है तो मैं आपको कैसे रोकू। मेरा जो होना होगा, होगा। इसके कुछ दिन पश्चात् मैं काशी गया। दूसरे दिन प्रसादजी कृष्णदास की कोठी पर पहुंचे। उस समय मैं कोठी के नीचे ही गगास्नान के लिए गया था। वे कोठी पर न रुककर गंगा तट पर पहुंचे। मैं पानी मे था। उन्हे देख ललककर मैंने उनसे कहा -आओ, तुम भी स्नान कर लो। उनका सेवक भी धोती, तौलिया और तेल की शीशी लिये उनके साथ था, परन्तु उन्होने मेरा प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। मैंने कहा-मीधे नही आओगे तो मै पानी उछाल कर भिगो दंगा। उन्होने व्यंग से कहा-और क्या करोगे तुम ? जितना चाहो, पानी और कीचड़ उछालो। यह १. यह प्रश्न स्वय दद्दा ने ही किया था और मैंने उत्तर मे बवण्डर कहा था। (सं०) २. बात यो है -'कीचड तो बहुत उछाला अब पानी उछालो -कीचड़ साफ हो जायगा।' (सं०) ३४ : प्रसाद वाङ्मय