पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४१

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नही। फिर भी उनके मुंह पर निश्चल दृढ़ता दिखायी देती थी। मुसकराकर ही उन्होंने अभिवादन के लिए हाथ जोड़े। मुझे पता था कि इस बार का मंगलाप्रसाद पुरस्कार उन्हें दिया जायेगा । जब हम लोग उनके कक्ष से बाहर निकले तब मैंने टण्डन जी से कहा-आप कहें तो मैं यह बात उनसे कह आऊँ।' सम्भव है, इससे उन्हें कुछ सन्तोष हो। टण्डनजी ने अनुमति दे दी और फिर मैं उनके कक्ष में गया । प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्होंने मेरी ओर देखा । मैंने कहा-इस बार का मंगलाप्रसाद पुरस्कार तुम्हें देने का निश्चय हुआ है । तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओ। मैं भी उसे लेने के समय तुम्हारे साथ चलूंगा। उन्होंने उत्तर में कुछ न कहकर दोनों हाथों से मुझे पकड़ लिया । मैंने देखा, उनकी आँखे छलछला आयी है और वे गद्गद् हो रहे हैं।' इसके पश्चात् ? मुझे अपनी पहली बात ही फिर कहनी पडती है : जयशंकर कहते-कहते ही अब भी काशी जावेगे। किन्तु प्रसाद न विश्वनाथ का मूत्तिमंत हम पावेगे। तात, भस्म भी तेरे तनु को हिन्दी की विभूति होगी। पर हम जो हंसते जाते थे रोते-रोते आवेगे। १. पुरस्कार की सूचना टण्डन जी स्वयं देते किन्तु एक विचित्र बात हो गई। पूज्य पिताश्री पूछ बैठे 'बताइए अपने उन राजनीतिक अस्पृश्यो के लिये क्या करने जा रहे हैं जो देश के लिये हँसते-हंसते फांसी पर चढ गए और कालापानी झेलते रहे, आपके शासन की नीव मे उनके रक्त से गीली मिट्टी सूखने वाली नही ।' प्रान्तों और केन्द्र में देशी मंत्रिमण्डल बन चुके थे और संयुक्त प्रान्त (उत्तरप्रदेश) की असेम्बली के टण्डन जी स्पीकर थे। कांग्रेस हाई कमाण्ड और कार्य समिति की दुहाई देकर और स्वास्थ्य के विषय में बात कर उन्होने शीघ्र बिदा ले ली। उन्हें आशंका थी कि कही वह प्रसंग और न बढ़े और बात पत्रों मे आ जाय । अंतिम तीन मास मे ज्वराधिक्य से प्रायः डिलीरियम हो जाता था और प्रलाप में- गोरे शासन एवं गोरी संस्कृति के प्रति उनके अत्यन्त क्षुब्ध उद्गार निकलते थे। २. पुरस्कार की प्रसन्नता नही प्रत्युत फिर न मिलने का अवसाद तब भावावेश- कारक रहा। दूसरे दिन उन्होंने कहा था 'लोगों रोका मत करो, जो आते हैं आने दो, न मिल पाने से लोगों को निराशा होती है-यह ठीक नही।' (सं०) संस्मरण पर्व : ३७