वाले प्रभाव एवं शान्ति को भी पूरी तरह बताया। उस सब प्रचार का क्या प्रभाव हुआ, किसने प्रसादजी की कद्र की, किन-किन दिलों को प्रसादजी के 'आंसू' द्रवित कर सके या शान्ति-सुधा पिला सके-यह जानने की किलकुल ही इच्छा नहीं हुई। तब भी था और आज भी मेरा यही मत है कि प्रसादजी के 'आंसू' का भारतीय साहित्य में बहुत ही उच्च स्थान है। यह हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि और उस कवि की एक अमर कृति है। ऐसी सुन्दर कृति का वह साधारण गेट-अप देखकर खेद होता है। उसका दूसरा संस्करण अधिक छपा है; परन्तु उसे भी किसी तरह सुन्दर नही कहा जा सकता । मुझे तो उमसे भी असंतोष है । उमर खैयाम के सुन्दर, सजे हुए, सचित्र संस्करण देखकर 'आँसू' को भी वैसे ही सचित्र स्वरूप में देखने को जी ललचाता है । प्रसादजी के उस अमर काव्य के एक-एक पद पर कई एक सुन्दर भावपूर्ण चित्र बन सकते है। X X किन्तु इतना सब होने पर भी प्रसादजी की अन्य कृतियों के प्रति विशेष आकर्षण नही हुआ; उनकी कहानियां और उनके नाटक पढ़े जाने पर भी वे स्वयं मेरे लिए अज्ञात वस्तु ही रहे। सन् १९२८ के जनवरी मास मे 'सरस्वती' का प्रथम और साथ-ही-साथ शायद अन्तिम वार्षिकांक निकला। उसमे प्रसादजी की 'आकाशदीप' कहानी को सर्व-प्रथम स्थान दिया गया था। प्रेमचन्दजी उस ममय तक मेरी श्रद्धा एवं आदर के पात्र वन चुके थे, अतएव उनसे भी पहले प्रसादजी की कृति को स्थान पाते देखकर आश्चर्य हुआ । 'आकाशदीप' को एक-दो बार पढा; परन्तु उस समय न तो उस प्रकार की कहानी की सुन्दरता एवं उसके कथानक के तारतम्य को समझने की बुद्धि ही थी और न उसके लिए प्रयत्न करने का धैर्य ही। 'सरस्वती' द्वारा उक्त कहानी को सर्वप्रथम स्थान दिये जाते देखकर प्रसादजी के प्रति श्रद्धा अवश्य बढ़ी, परन्तु तब भी उनकी महत्ता को नही समझ सका। वे तब भी जन-ममाज के कहानी लेखक नहीं बन पाये थे। उनकी प्रारम्भिक कहानियां इसी कारण भावपूर्ण एवं सुन्दर होते हुए भी माधारण पाठकों के मनोरंजन की वस्तु नहीं बन सकी । बरसों बाद जब प्रसादजी ने उपन्यास-रचना के लिए हाथ बढ़ाया, तब उनकी कहानी- लेखन-कला मे कई-एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। प्रसादजी की भावुकता, विशिष्ट भाषा-शैली एवं काव्य के प्राधान्य थे तब भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ा; किन्तु तब घटना-वैचित्र्य, कथानक मे एक अवाध प्रवाह एवं भाषा में सरलता आये बिना नही रह सकी। 'आकाश-दीप' और 'आंधी' की कहानियों में पाई जानेवाली विशिष्ट विभिन्नताओं का यही मुख्य कारण है। x X X यद्यपि इधर पिछले चार सालों से मैं यदा-कदा हिन्दी मे लेख लिखने लगा था ४०: प्रसाद वाङ्मय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४४
दिखावट