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प्रसीद जगतांनाथ धर्मवर्म रमापते ॥ अध्याय ३॥ मुने किमंत्र कथनं कल्किना धर्मवर्मणा ॥ अध्याय ४॥ तब 'राजतरंगिणी' का यह अवतरण और भी हमारे मत को पुष्ट करता है कि यशोधर्मदेव से पहले विक्रमादित्य हुए थे. म्लेच्छोच्छेदाय वसुधां हरेरवतरिष्यतः । शकान्विनाश्य येनादौ कार्य भारो लघूकृतः ॥तरंग ३॥ भावी कल्कि यशोधर्म के कार्य-भार को लघु कर देने वाले विक्रमादित्य उनसे साठ वर्ष पहले ही हुए थे, और वह थे-श्री विक्रमादित्य स्कंदगुप्त । इस तरह 'राजतरंगिणी' के 'श्रीमान् हर्षापराभिधः' के शुद्ध पाठ से 'श्रीमान स्कंदापराभिधः' की संगति भी लग जाती है। इन तीसरे विक्रमादित्य स्कंदगुप्त के संबंध में 'कथासरित्सागर' का विषमशील लंबक सविस्तार वर्णन करता है। उज्जयिनीनाथ (महेंद्रादित्य) का पुत्र यह विक्रमादित्य 'म्लेच्छाक्रांते च भूलोके' उत्पन्न हुआ और इसने-- 'मध्यदेशः स सौराष्ट्रः स बङ्गाङ्गा च पूर्व दिक से कश्मीरान्सकौबेरी काष्ठाश्च करदीकृता म्लेच्छसंघाश्च निहताः शेषाश्च स्थापिता वशे' इतिहास में सम्राट कुमारगप्त की उपाधि महेन्द्रादित्य प्रसिद्ध है। इसके चांदी के सिक्कों पर 'परम भागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य' स्पष्ट लिखा मिलता है। इसी के समय में मालव के स्वतंत्र नरेश विश्ववर्मा के पुत्र वंधुवर्मा ने अधीनता स्वीकार कर ली। विक्रमाब्द ४८० तक गंगधार के शिलालेख द्वारा-मालव का स्वतंत्र रहना प्रमाणित है, परंतु ५२९ विक्रमाब्द वाले मंदसोर के शिलालेख में ४९३ विक्रमीय मे कुमारगुप्त की सार्वभौम सत्ता मान ली गई। इससे प्रतीत होता है कि इसी काल में मालव गुप्त-साम्राज्य में सम्मिलित हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में नरवर्मा और विश्ववर्मा मालव के स्वतंत्र नरेश थे। कुछ लोगों का अनुमान है कि नर्मदा के निकटवर्ती पुष्यमित्रो ने जब गुप्त-साम्राज्य से युद्ध प्रारम्भ किया था तभी कुमार स्कन्दगुप्त के नेतृत्व में गुप्त-साम्राज्य की सेना ने उज्जयिनी पर अधिकार किया। इन्ही स्कंदगुप्त का सिदकों में 'परम भागवत श्री विक्रमादित्य स्कन्दगुप्त' के नाम से उल्लेख मिला है इनके शिलालेख से प्रकट है कि कुल लक्ष्मी विचलित थी, लेच्छों और हूणों से आर्यावर्त आतंकित था। अपनी किंतु तथ्यों के पुनरावलोकन एवं अपने स्वतत्र अन्वेषण में इस मत के सारहीन सिद्ध होने पर उक्त नाटक की पांडुलिपि को उन्होंने स्वयमेव नष्ट कर दिया था। (सं०) स्कंदगुप्त विक्रमादित्य-परिचय : ३५