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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३६

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सत्ता बनाये रखने के लिए इन्होंने पृथ्वी पर सोकर रातें बिताई। हूणों के युद्ध में जिसके विकट पराक्रम से धरा विकंपित हुई जिसने सौराष्ट्र के शकों का मूलोच्छेद करके पर्णदत्त को वहाँ का शासक नियुक्त किया-वे स्कंदगुप्त ही थे-जूनागढ़ वाले लेख में इसका स्पष्ट उल्लेख है । स्कंदगुप्त की प्रशंसा में उसमें लिखा है 'अपिच जितमिव तेन प्रथयन्ति यशांसि यस्य रिपवोप्यामूल भग्नवर्पा निर्वचना म्लेच्छवेशेषु" पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने सुदर्शन झील, का संस्कार कराया था; अनुमान होता है कि अंतिम शक-क्षत्रप रुद्रसिंह की पराजय वाली घटना ईसवीय सन् ४४७ के करीब हुई थी। स्कंदगुप्त को सौराष्ट्र के शकों और तोरमाण के पूर्ववर्ती हूणों से लगातार युद्ध करना पड़ा। इधर वैमातृक भाई पुरगुप्त से आंतरिक द्वंद्व भी चल रहा था। उस समय की विचलित राजनीति को स्थिर करने के लिए प्राचीन राजधानियों-पाटलिपुत्र या अयोध्या से दूर-एक केन्द्र-स्थल में अपनी राजधानी बनाना आवश्यक था। इसलिए वर्तमान मालव की मौर्यकाल की अवंती नगरी को ही स्कंदगुप्त ने अपने साम्राज्य का केन्द्र बनाया और शकों तथा हूणों को परास्त करके उत्तरीय भारत से हूणों तथा शकों का राज्य निर्मूल कर 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। विक्रमादित्य' उपाधि के लिए शको का नाश करना एक आवश्यक कार्य था। पिछले काल में इसीलिए विक्रमादित्य का एक पर्याय 'शकारि' भी प्रचलित था और स्कन्दगुप्त के समय में सौराष्ट्र के शकों का विनाश होना चक्रपालित के शिलालेख से स्पष्ट है परन्तु यशोधर्म के ममय में शकों का राज्य कही न था। यही बात 'राज-तरंगिणी' के 'शकाविनाश्य येनादी कार्य भारो लघकृतः से भी ध्वनित होती है। मंदसोर वाले स्तंभ मे यशोधर्म का शकों के विजय करने का उल्लेख नहीं है, हूणों के विजय का है। मंदोसोर के यशोधर्म के विजय-स्तंभ का भी वही समय है जो वराहदास या विष्णुवर्द्धन के शिलालेख का हैं। गोविन्द की उत्कीर्ण की हुई दोनों प्रशस्तियां है। उसका समय ६३२ ई० का है। मिहिरकुल ही भारी विदेशी शत्रु था, यह बात उक्त जयस्तंभ से प्रतीत होती है । मिहिरकुल ५३२ ई० के पहले पराजित हो चुका था, तब वह कौन-सा युद्ध ५४४ मे हुआ था--यह नहीं कहा जाता--जिसके द्वारा यशोधर्म के 'विक्रम' होने की घोषणा की जाती है, इसीसे हार्नेली के विरुद्ध स्मिथ ने यशोधर्म द्वारा मिहिरकुल के पराजित होने का काल ६२८ ई० माना है । परन्तु, वे उम युद्ध को 'कहरूरयुद्ध' कहकर सम्बोधित नहीं करते। कहरूरयुद्ध ५४४ मे नही हुआ जैसा कि फर्गुसन, कीलहान, हानली आदि का मत है-प्रत्युत-पहले-बहुत पहले ४५७ ई० के समीप, दूसरी बार हो चुका है। संभवतः सौराष्ट्र के शक रुद्रसिंह और गांधार के हूणतुंजीन की सम्मिलित वाहिनी ३६ : प्रसाद वाङमय