प्रसादजी के मित्रों ने, प्रेमी साथियों ने उनको धीरे-धीरे मरते देखा। उमका बरसों का साथ छूट रहा था, वे बेबस बैठे देख रहे थे। उन्हें शायद यह ज्ञात हो गया था कि अब प्रसादजी कुछ ही दिनों के मेहमान हैं । परन्तु, जो बनारस से सैकड़ों कोस दूर थे, जिन्हें पूरी-पूरी हालत का पता न था, उन्हें फिर भी आशा बनी रही। परन्तु, जब अचानक एक दिन वह दुःसंवाद अखबार में पढ़ने को मिला, तो जी धक् से रह गया; जीवन मे सूनेपन का अनुभव हुआ और पुनः उन घड़ियों की आद आई, जब 'आंसू' ने जी को यदा-कदा तसल्ली दी थी। महीनों के उन चिंतापूर्ण दिनों की- जो घनीभूत पीडा थी मस्तक मे स्मृति-सी छाई; दुर्दिन मे आंसू बनकर वह आज बरसने दो आंसू ढुलक पड़े और एकांत मे जाकर मैं उस दुर्घटना की बात सोचने लगा। आई। X X X 'नही | नही ! मैं नहीं मानता।' एक साल-भर के बाद अभी इंगलैंड से लौटे हुए मेरे छोटे भाई ने कहा-'मैं नही मान सकता कि प्रसादजी मर गए 'मानो या न मानो, यह एक कठोर सत्य है कि अब प्रसादजी नही रहे।' 'सचमुच ! तुमने तो मुझे इस बात की कोई सूचना तक नहीं दी। किसी भी पत्र में इसका कोई उल्लेख मही किया।' 'तुम्ही बताओ कि मैं किस दिल से इस बात का ढिंढोरा पीटता ?' ४६: प्रसाद वाङ्मय
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