पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५१

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- अमर पुरुष 'प्रसाद' -अमृतलाल नागर सबेरे का अखबार सामने रखा है। प्रसादजी पर लेख लिखने की चिन्ता आज की ताजी खबरों में खोई हुई, अपनी राह खोज रही है। उनसे मेरा केवल बौद्धिक संबंध ही नही, हृदय का नाता भी जुड़ा हुआ है। महाकवि के चरणों में बैठकर मैंने साहित्य के संस्कार भी पाये है और दुनियादारी का व्यावहारिक ज्ञान भी। पिता की मृत्यु के बाद जब मैं बनारस मे उनसे मिला था, तब उन्होने कहा था -'भाइयों के सुख में ही अपने सुख को देखना । हिसाब-किताब साफ रखना ! तभी घर के बड़े कहलाओगे।' इसी बात को लेकर प्रसादजी आज भी मेरे जीवन के निकटतम हैं। यों बरसो के साथ रहकर अपनापन पाने का सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त हुआ। सब मिलाकर बीस-पच्चीस बार भेंट हुई होगी। आदरणीय भाई विनोदशंकर व्यामजी के कारण ही उनके निकट पहुंच सका। मैंने साहित्य की उस गम्भीर मूत्ति को खिलखिलाकर हंसते हुए देखा है। चिन्तन के गहरे समुद्र को चीरकर निकली हुई सरल हंसी उनके सहज सामर्थ्य की थाह बतलाती थी। यही उनका परिचय है जो मैंने पाया है। प्रसाद आशावादी थे, और उनकी आशावादिता का अडिग आधार-स्तम्भ था उनकी आस्तिकता ! लेकिन आज तो ईश्वर ही खो गया है। जीवन लक्ष्यभ्रष्ट है, उद्देश्य सपने की वास्तविकता बनकर कोरे शब्दो से सज रहा है। मेरे सामने आज का अखबार खुला हुआ है। डिमॉक्रेसी की सती, लाज-लुटी वेश्या बनकर अखबारी कॉलमो के कोठे पर खड़ी है। बस्ती और देवरिया के कुछ क्षेत्रों मे अकाल पड़ रहा है। राजस्थान मे अनाज की कमी के कारण दगे हो रहे है। कोरिया मे लाखो मनुष्यो की लाशों का ईधन जलाकर स्वार्थगत सत्ता की रोटी सेकी जा रही है। जग की चिन्ताओ से अपनापन स्थापित कर मेरे मन पर छाई जा रही है हताशा। भूख, बेकारी और रोग के धने-काले बादलों से ढंके हुए जीवन के आकाश मे अपने प्रेरणा के सूर्य की आंखें गड़ा-गड़ाकर देख रहा हूँ-कही से प्रकाश की एक किरण भी नही झलकती। मन शंका और भय के शीत से कॉप रहा है। लगता है, उषा का अर्थ ही बदल गया ! सूर्य अब उषाकाल में ही अस्त होगा और चौबीसों घंटे, तीसों दिन अस्त ही रहा करेगा। संस्मरण पर्व : ४०