हिन्दी के मूर्धन्य महाकवि 'प्रसाद' के संस्मरण -डा० जगन्नाथ प्रसाद शर्मा प्रातिभान-सम्पन्न हिन्दी के श्रेष्ठ महाकवि और समग्र हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं पर रचनाओं की उत्तमोत्तम कृतियों के निर्माता प्रसाद' जी के संस्मरण लिखने की पूरी क्षमता मुझमे है कि नही यह मुझे ज्ञात नही, पर इतना विश्वास मुझे अवश्य है कि साठ-सत्तर वर्षों से मैं उनकी समीपीय संगति मे निरन्तर ज्ञान की प्राप्ति करता आया था साथ ही उनकी श्रेष्ठ संगति का पूरा आनन्द लेता रहा। उनकी कृतियों को बारम्बार पढ़ता-पढाता रहा। उनके स्वभाव, प्रकृति और सुख- दुःख का भी न प्राप्त करता रहा। उनकी मंगति मे रहकर मैंने बहुत कुछ सीखा और समझा था। पास मे ही मेरा भी निवास था इसलिए जब भी अवसर मिलता उनके समीप पहुँच जाता था। उनकी उत्तमोत्तम कृतियो में छोटी-बड़ी कहानियाँ तो है ही उपन्यास, नाटक, काव्य-कृतियों, की सफलता का उल्लेख करना तो प्राय. सभी साहित्य प्रेमियों के सम्मुख स्पष्ट है, अत उस विषय मे मेरा कहना प्रायः असमय की बात होगी। उनके शरीरांत के कुछ दिन पूर्व जब उनके पास गया था उस दिन की बात मेरे अन्तःकरण में आज भी विस्मृत नही हो पाती। प्रातः आठ बजे के लगभग मै उनसे मिलने की इच्छा से गया था। सूचना मिलते ही उन्होने तुरन्त ऊपर ही बुलाया। मै ऊपर उनके कक्ष मे सहमता-सा गया और उनके सम्मुख जाकर एक कुर्सी पर बैठ गया । लगातार उनके मुख पर दृष्टि जमाकर देखता रहा। उन्होंने मेरी ओर देखकर मुसकुराते हुए कहा कि 'शर्मा जी क्या बड़े गौर से चकित होकर सोचने लगे। मैं वही आपका कृपापात्र 'प्रसाद' हूँ, भले ही काल-कालवित, दुर्बल-मा बन गया हूँ। आपके प्रबन्ध का केवल 'राज्य-श्री' वाला अंश मात्र पढ़ सका हूँ। मुझे प्रसन्नता का अनुभव भी हुआ-यह जानकर विशेष संतुष्ट भी हूँ कि आप अच्छी आलोचना लिखने में पटु हो गए हैं।' मैं अवश्य कुछ प्रसन्न हुआ-और उनकी ओर करुण भाव से देखता बोला कि अपने श्रेष्ठ कवि और सहायक कृतिकार की वाणी सुनकर पूर्ण संतुष्ट हूँ। इसको मैं आशीर्वाद रूप में भी स्वीकार भी कर रहा हूँ। आप मुझे कुछ चिन्तित से ज्ञात हो रहे है।' इस पर उनके पास 'कामायनी' महाकाव्य की एक संस्मरण पर्व : ५५
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