पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५८

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दिखलायी पड़ती जितनी दिखलायी पड़नी चाहिए। उस संस्कृति के उभार और उसको जन-जन के भीतर प्रबल करने की अनिवार्य आवश्यकता है। इस कार्ग के लिए कोई भी क्षेत्र और समय चुना जाथ-उद्देश्य प्राप्ति का निर्वाह यदि श्रम और लगन के साथ किया जायगा तो कह सकेंगे कि हमने अपने कर्तव्य का कुछ तो पालन किया।' जब हम लोग काशी से चले आये मेरे मन में ये बातें रह-रहकर उठती रही क्योंकि घर कर गयी थी, गहरे जा पैठी थी। उस यात्रा के उपरान्त फिर मैं प्रसादजी से मिलने का सौभाग्य कभी प्राप्त न कर पाया। प्रसादजी ने देश, समाज और व्यक्ति को अपनी रचनाओं द्वारा जो कुछ दिया है वह अमर रहेगा। ५४. प्रसाद वाङ्मय