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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३७४

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आग्रह किया था। कवि-सम्मेलनों को प्रसादजी नापसन्द करते थे; पर छोटी गोष्ठियों में कविता सुनना या सुनाना उन्हें पसन्द था। एक ही बार नागरी प्रचारिणी सभा के बड़े समारोह में मैंने उन्हे 'आँसू' की पंक्तियों का सस्वर पाठ करते सुना था। सारी सभा उनके कविता-पाठ से मुग्ध हो गई थी। प्रसाद के साहित्यिक जीवन का आरंभ कवि के रूप में हुआ था। उनके आरम्भिक पद्यों मे अतीत की सुखद स्मृतियों सी, एक हल्के विषाद से भरी प्रतिक्रिया दिखाई दी, साथ ही उनमे यौवन और श्रृंगार की अतृप्त अतिशयता भी लगी हुई थी। 'चित्राधार' और 'कानन कुसुम' के छाया-संकेतों मे इन्ही दबी भावनाओं का आभास मिलता है और 'झरना' की 'छेडो मत यह सुख का कण हे, उत्तेजित कर मत दौड़ाओ, यह करुणा का थका चरण है'- आदि पंक्तियो में इमी की गूंज है। 'आँसू' मे कवि का यह वैयक्तिक पक्ष पूरी तरह उभर आता है; परन्तु इसी के साथ कवि की एक आभिनव दार्शनिकता भी उतनी ही प्रभावशीलता के साथ काव्य का अंग बन गई है । उद्दाम शृगारिक स्मृतिगो के साथ मंपूर्ण समाधानकारक दार्शनिकता 'आंसू' की विशेषता है। भावनाओं के असाधारण उद्वेग के साथ उतनी ही प्रगाढ़ दार्शनिक अनुभूति का योग, रचना मे एक अपूर्व मार्मिकता और संतुलन ले आता है। यह दर्शन-गासित प्रेम-गीति, नई कल्पना तथा नए काव्याभरण का योग पाकर युग की एक प्रतिनिधि कृति हो गई है। अनेक कवियो ने इस छन्द और इमी भाव- धारा की अनुकृति करनी चाही। इससे केवल इतना ही लक्षित होता है कि इस रचना के प्रति साहित्यिक क्षेत्र मे अमाधारण आर्कषण रहा है। 'ऑसू' के अनन्तर प्रसादजी के प्रगीतो मे वह उद्वेग नहीं मिलता। 'लहर' मे अधिक परिष्कृत सौन्दर्य- चित्रण और संयमित भाव-धारा है । दो-चार गीनो मे अतीत की मनोरम स्मृतियां भी आयी है : पर उनमे आँसू की-सी अभाव या शून्यता की व्यंजना नही है । अब तो वे मनोरम-क्षण जगत मे नया सौन्दर्य लाने की चेष्टा मे सलग्न है। 'ओ सागर-संगम अरुण नील'-जैसे कुछ गीत प्रसादजी की पुरी-यात्रा के स्मारक है और प्राकृतिक सौन्दर्य की अनोखी झांकी से समन्वित है। प्रेम और करुणा की तात्विक भावना का चित्रण 'लहर' मे, महात्मा बुद्ध के जीवन प्रसंग और उनकी दार्शनिकता की पार्श्व-भूमि पर किया गया है । शेरसिंह का 'शस्त्र-समर्पण' और 'प्रलय की छाया' के रूप मे दो नाटकीय आख्यानक गीतियां भी 'लहर' में है; उनपे क्रमश 'पराजित वीरत्व' और 'सौन्दर्य वर्ग' का विवरणपूर्ण मनोवैज्ञानिक चित्रण है। प्रसादजी की रेखाएँ इन चित्रणो मे पर्याप्त पुष्ट है; जो उनकी कलात्मक समृद्धि का प्रमाण कही जा सकती है। 'लहर' मे 'बीती विभावरी जाग री' - गोर्षक यह जागरण-गीत भी है, जो कदाचित् प्रसादजी के सम्पूर्ण काव्य-प्रयास के साथ ही उनकी युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है। ७०: प्रसाद वाङ्मय