सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'कामायनी' प्रसादजी के कृतित्व का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। उनमें सर्वांगपूर्ण जीवत-दर्शन, नारी-पुरुष का सम्पूर्ण चित्रण और नई परिस्थितियों का व्यापक निरूपण है। नये ज्ञान का विस्तृत उपयोग उसमें किया गया है। 'कामायनी' में कवि प्रसाद ने आदि मानव का आख्यान लिया है और उसे, प्राचीन कथातन्तु का सहारा लेकर नए उपकरणों से सज्जित किया है। कथानक में मनोविज्ञान के साथ मानव सभ्यता के विकास का वैज्ञानिक चित्र भी दिखाया गया है। इस प्रकार काव्य का कथानक तो नये विज्ञान का उपयोग करता है, उसे गति और विस्तार देता है, और इस विज्ञान-सम्मत विकास को सार्थकता और आलोक देने के लिए कवि ने भारतीय दर्शन का सुन्दर उपयोग किया है । उसी के अनुरूप 'कामायनी' मे दो नारी-चरित्र भी है। एक 'श्रद्धा' भारतीय भावना और दर्शन की प्रतिनिधि, दूसरी 'इडा' नए वैज्ञानिक विकास की प्रतीक । इन दोनो का संतुलन और समन्वय, नवीन भारतीय संस्कृति को 'कामायनी' के कवि की नई देन है। नाट्य-क्षेत्र में प्रसादजी ने नाटक को नए चरित्र, नई घटनाएं, नया ऐतिहासिक देश-काल. नएा आलाप-मंलाप संक्षेप में, सम्पूर्ण नया समारम्भ दिया, जिसके फल- स्वरूप हिन्दी नाटकों मे नया युग-प्रवर्तन होने लगा। प्रसादजी के नाटक ऐतिहासिक है, इसलिए घटना और चरित्र का स्वतंत्र निर्माण तथा जीवन-समस्याओं और संघर्षों की योजना उनमे इतिहास की पाबंदी के भीतर हुई है, पूर्ण स्वतंत्रता के साथ नही। इस दृष्टि से प्रसाद के नाटक, उनके 'कामायनी' महाकाव्य की भांति पूर्ण निर्माणात्मक मौलिकता लेकर नहीं आए है; पर ऐतिहासिक नाटक के इस प्रारम्भिक प्रतिबन्ध को स्वीकार कर लेने पर, तहास की पाबन्दी के भीतर घटनाओं की नाट्योपयोगी योजना, चरित्रों और परिस्थितियो का संघर्ष और द्वन्द्व तथा नाटक मे ऐतिहासिक देश-काल के समुचित प्रकार के साथ ही शिष्ट और सौम्य भाषा मे, कही कुछ काव्यात्मकता लिये हुए और कही विनोद के हल्के पुट से अनुरजित सम्वादों की सृष्टि प्रसादजी ने की है। उनके नाटको मे कई प्रकार की त्रुटियाँ लोगो ने देखी है और सम्भव है, भविष्य मे भी देखे; पर हिन्दी नाटकों को नवीन स्वरूप और नया जीवन देने में सादजी का ही कार्य सर्वोपरि है। इतिहास की घटनाओं को नाटकीय कथा-वस्तु के रूप मे ढालकर सजीव पात्रों की सृष्टि करना तथा अतीत के उन व्यक्तियों और परिस्थितियों में आज के पाठक और नाट्य-दर्शक का मन रमा लेना प्रसादजी की विशेषता है। उनके नाटकों में घटनाओं के आकर्षण की अपेक्षा चरित्रों की विविधता और उनकी मनोभावनाओ का उन्मेष तथा प्रदर्शन अधिक है। प्रसाद के नाटक इतिहास के रूखे अस्तित्व को नाटकीय कौतूहल, प्रभावशाली दृश्य- विधान और कला की चमत्कारिता देने में समर्थ हुए है। संस्मरण पर्व : ७१