श्री अन्नपूर्णानन्द जी ने व्यंगात्मक तथा हास्य रस की कविता का श्रीगणेश मेरे ऊपर से ही शुरू किया था। मैं मीठा-खासकर गुड़ का बड़ा शौकीन था। इस पर उन्होंने कविता बना डाली :- एक दिन छोटे प्रेम से, बैठे अम्मा पास । गान लगे गुड़ की कथा, यद्यपि लगी हगास ।। उन्होंने मुझसे कहा था--तुमने प्रमादजी को देखा है। मैंने कहा नही-मुच्छन को भी प्रसाद जी का यश और नाम का पता नही था। विनोदशंकर व्यास ऐसे महान अतुलनीय कहानीकार से बात हुई-वे ले चले मुझे, मुच्छन भी साथ था। नारियल बाज़ार मे अपनी दूकान के सामने चबूतरे पर वह भव्य मूर्ति विराजमान थी। बगल मे-पान की डोली लिये तम्बोली बैठा। कई लोग बैठे-कई खड़े थे। मुझे देखते ही बोले-तुम्हारा लेख “आज" मे पढ़ा है . "तुम तो बड़ा अच्छा लिखत हो हो । आवऽबइठऽपान जमावऽ ।" मैं कितना उत्साहित हुआ अपने लेख की चर्चा तथा प्रशंसा-फिर आत्मीयता के साथ पास मे बिठाकर पान खिलाना। मेरे ऐसे तुच्छ लेखक के लिए वह वरदान हो गया कि कोई संकोच, न कोई आडम्बर । "आवs बइठऽ" आज तक नही भूलता । एक तो प्रसादजो का यश, स्वभाव, स्वागत तथा उनके यहां जाने और वैठने में एक और मज़ा था। यह तो मैं नही कहूंगा कि उनकी दूकान ओर आस-पास के कोठे पर बैठने वाली वेश्याओं की ओर मैं आँख नही उठाता था। मुझे अच्छा लगता था। इस सम्बन्ध में एक प्रसंग याद आ गया। एक बार कालेज में शेक्सपियर के नाटक का कोई अंश पढ़ाते समय श्री श्रीप्रकाश जी ने पूछा- "तुम लोग कभी दाल- मण्डी वेश्याओं के मुहल्ले से गुजरे हो।" मबने कहा--हाँ । फिर पूछा---"वेश्यायें कैमी लगी।" सब चुप हो गये। केवल मैंने और कमलापति ने कहा-"कुछ तो अच्छी है, कुछ नही जंची।" श्री प्रकाश जी ने तुरन्त हमारी सराहना करते हुए कहा कि “जो लोग, जो नौजवान यह कहता है कि वेश्याओं के मुहल्ले मे निकल जाय और आँखें नीची किये रहे, वह झूठ बोलता है। आंखें ऊपर न उठे, यह असम्भव है। युवकों की सच्चाई जानने के लिए मैंने यह सवाल पूछा था।" अस्तु, प्रसादजी के यहाँ जाने आने में ही विनोदशंकर व्यास की आँख प्रसिद्ध गायिका टामी बाई से लड़ गयी थी और फिर वह देवी व्यास जी की होकर रही। प्रसादजी युवकों की ऐसी आदत से अपरिचित मही थे। एक बार तो उन्होंने मुझे टोका भी था-"कहीं घूर चुके हो तो हमरो सुनो।" वर्षों बाद जब ज्येष्ठ भ्राता श्री सम्पूर्णानन्द जी के लिये अपने मित्र ठाकुर जंग बहादुर सिंह के साथ मुझे वोट मांगने वेश्याओं के कोठे पर जाना पड़ा तो मुझे दो अनुभव हुआ-एक तो सड़क पर से दिखाई पड़ने वाले रूप और घर के रूप में कितना अन्तर है तथा बड़े-बड़े कर्मकाण्डी संस्मरण पर्व : ७९
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