पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८५

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उसके मुख से ही वर्षों बाद सुना। ऐसे ही प्रसाद जी के निजी जीवन या परेशानी की मुझे कोई जानकारी नहीं।' उनके जीवन के मम्बन्ध में, यहां तक कि उनकी बीमारी के सम्बन्ध में, उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित लेखों से, श्री रत्नशंकर के लेखों से जो कुछ पढ़ता हूँ तो अब आश्चर्य होता है। यह सही है कि उनके जीवन के अन्तिम वर्षों में मैं जीविका के लिये काशी से बाहर रहता था। घर, बार-बार काशी आता ही था, प्रसादजी से मिलता था। आत्मीयता बढ़ी तो उनके घर जाने लगा। पर उन्होंने कभी अपनी पीडा शारीरिक कष्ट हो या मानसिक, कभी किसी से प्रकट नही किया, जितना मैं जानता हूँ। मुझे वे हमेशा स्वस्थ लगे। अपनी पीड़ा और वेदना को वैमा ही अपने में समेटे-समेटे चलते थे जैसे अपनी कृतियों में वे संसार की वेदना समेट लेते थे। मैं उनके घर जाता तो प्यास लगने पर पानी नही, फलों का रम मिलता था- कहते थे कि पानी नही, फल का रस पीओ । मैं भी यही पीता हूँ। मैं उन दिनों सिगरेट भी पी लेता था। वे सिगरेट से घृणा करते थे। हमारी मण्डली मे मै ही एक सिगरेट पीने वाला था। प्रसादजी अपने लिये विशेष प्रकार की पीने वाली तम्बाकू बनाते थे और कहते थे कि मिट्टी की गौरैया (काशी मे तम्बाक पीने का मिट्टी वाला हुक्का-जिसमें पानी भर दिया जाता था, नये पात्र में बडा सोंधा सुगन्धित पानी से निकोटिन मारता हुआ स्वादिष्ट धुंआ निकलता था) एक बार सेवन के बाद फेक देता हूँ। हर बार नया पात्र । यह उनकी रियासत थी। ऐसे साफ-सुथरे व्यक्ति को यक्ष्मा ने कैसे पकड़ा, ईश्वर जाने । वे बहुत पठित थे लिखने के पहले घोर अध्ययन करते थे, यह तो उनसे बात करने से ही पता चलता था । लिखते थे "स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा" के समान । कुछ रचनाकार दूसरो को अपनी रचना सुनाकर आनन्द लेते थे पर प्रसादजी ने अपने मुख से एक पंक्ति भी हमे नही सुनायी। मेरे विचार से ऐसा इसलिये नही था कि ये मुझे सुनने का पात्र नही समझते थे पर केवल उनका संकोच था। दूसरे पर अपनी रचना का भार नही लादना चाहते थे। उनकी मृत्यु के बाद जब उनकी जीवन के हर पहलू पर प्रकाश पड़ता है, मुझे आश्चर्य होता है कि १९२४ से १९३७ तक के साथ मे मैंने यह सब क्यों नही जाना-क्या दूसरे के निजी जीवन के प्रति आँख बन्द रखने के कारण या अपनी नासमझी से । वे इतने बड़े महापुरुष थे, यह तब क्यों नही जाना-शायद इसलिये कि- "अति परिचयात् अवज्ञा" आज भी प्रसाद जी का वह हतप्रभ, रोता हुआ चेहरा याद है जब वे श्री प्रेम- चन्दजी के निर्जीव शव को भाभी शिवरानी के गोद से खींचने गये थे। वे मुर्दा छूने नहीं देती थीं। चिल्लाकर कहती थी कि "मैं दुबारा विधवा नहीं होऊँगी।" सबने समझा, विशेषकर उपन्यासकार जैनेन्द्र कुमार ने, कि प्रसाद जी का व्यक्तित्व ऐसा है - w संस्मरण पर्व · ८१ .