पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४२४

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कोई दूसरी बात छेड़ देते थे जिससे उस कविता के विषय में औरों से भी कुछ ने सुन सकें। उन्होंने अपने लिखे पर न कभी कोई प्रवचन दिया और न कभी उसकी कोई रूपरेखा समझाने की आवश्यकता समझी मानो वह उनके लिए भी अनधिकारपूर्ण रहा हो। वह अपने लिखे को समझाना इस प्रकार टाल जाते थे जैसे वह उनके अपने मान-सम्भ्रम के विरुख ही नहीं सुनने कालों के मान सम्भ्रम के विरुद्ध भी रहा हो। अपने लेखन के विषय में वे अत्यन्त मितभाषी थे। किसी को छोटा या नीचा नहीं समझते थे। नौसिखिये कवियों की कृतियों को अपने बाल्यकाल की कृतियों की भांति ही आदर से सुनते और उसे सुनते-सुनते लिखने वाले से तादात्म्य स्थापित कर लेते थे। वाद-विवाद उनकी दृष्टि में अपना समय और सत्व स्वयं नष्ट करने के समान एक निरर्थक अहंकार था। __ मैं उनकी इस निःसंग प्रकृति का अध्ययन कर रहा था। इसलिए 'बासू के तीन छन्दो के विषय मे कुछ पूछने की मेरी हिम्मत तो नही हुई परन्तु 'क्यों हाहाकार स्वरों मे वेदना असीम गरजती' और 'कुछ विस्मृत बीसी बातें सुनकर 'कुसुम' से नही रहा गया। उन्होने 'काव्य की पृष्ठभूमि क्या है' या 'आगे क्या लिखना है' इस प्रकार की कोई जिज्ञासा की जो अब शब्दशः तो क्या, भावशः भी याद नही है। बाबू साहब ने गहन दार्शनिक स्मित के साथ सुना और 'ऊपर वाला जाने', केवल यह तीन शब्द कह कर चुप हो गये। ऐसी स्थिति मे केवल कल्पना क्या काम दे सकती है। वास्तव मे बाबू साहब अपने ही रूप पर आप ही इतने मुग्ध थे कि यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता कि उन्हें कभी किसी रूपवती से आसक्ति और उसके वियोग से कभी कोई पीड़ा हो भी सकती थी या नही। बाह्य आसक्ति उनके काव्य की विषय-वस्तु बन भी सकती थी या नही, इसमे सन्देह है। वे अत्यन्त पवित्र और आत्मस्थ विचारो के स्वामी थे। दासता तो वे कदाचित् अपने प्राणों की भी स्वीकार नही कर सकते थे। ___ उपरोक्त घटना से कई महीने पहले दूकान पर पहुंचने पर मैंने और व्यास जी ने श्रीरामचन्द्र शुक्ल को बाबू साहब के पास बैठा पाया। हमें देखकर बाबू साहब ने जो हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की वह शुक्ल जी को अस्वाभाविक जान पड़ी, क्योंकि उनकी दृष्टि मे हम दोनों गदाई थे । व्यास जी पर हाथ रखते हुए बोले, "गुरूजनों की सेवा से मेवा पाते हो । भाग्यवान हो।" ___ अत्यन्त संयम से काम लेते हुए भी बाबू साहब उनकी बात न पत्रा सके और उन्होंने बड़े सरल स्वभाव से कहा, "साधकों मे छोटा बड़ा क्या ? सब ही तो समान अधिकारी है।" १२० : प्रसाद वाङ्मय