पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४२८

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जब तक दिन रहता है उसके कर्म-प्रकाश में हृदय-कमल खिले रहते है क्योंकि दिन भर कोई न कोई स्नेही घेरे रहता है और उन कमतों को संकुचित होने से रोके रखता है, परन्तु सन्ध्या समय जब कमल मुंदने लगते हैं तो भौरों की भांति मंडराने वाले स्नेहियों की आंख बचा कर यह कमल अपने आपको रात के घिरते हुए अन्धकार में बन्द कर लेते हैं। प्राणी कभी उस धुधली सन्ध्या के दुख से रो उठता है तो कभी पुनः दिनोदय की प्रतीक्षा के अतिशय सुख से रो उठता है। यही क्रम चलता रहता है। स्मृतियों से पूर्ण हृदय असीम अछोर माकाश में बदल जाता है जिसमें कभी दुखों के झंझा का झकोर और गर्जन सुनायी देता है, कभी स्मृतियों की बिजली कोधने लगती है और कभी आंसुओं की जन्मदात्री वेदना नीरद-माला की भांति घिर आती है। ऐसी प्रलयंकरी वर्षा मे ही आँसू का जन्म होता है। ___ अभिलाषाएं करवट लेने लगती हैं, परन्तु जब उनके करवट बदलने की आहट से सुप्त व्यथाएं जाग पड़ती है तो उनके दुख को देखकर सुख सपना बन जाता है और आंसू बहाते-बहाते पलक लग जाते है। फिर न जाने नीद स्वयं कब आ जाती है। इस सन्दर्भ मे एक बात याद आ गयी। भय्या विनोदशंकर व्यास के निधन से वर्ष भर पूर्व मुझे लगभग दो सप्ताह तक उनके डेउरिया दीर वाले निवास में रहने का संपोग हुआ। एक दिन मौज मे थे । सन्ध्या का समय था बाबू साहब के भव्य चित्र का धूपदीप-माल्य-दान करके निबटे तो तवे का हुक्का भरकर मुझे अपने पास बिठा लिया। फिर न जाने उन्हें एकाएक कौन-सी स्मृति आयी कि 'आँसू की पंक्तिया, 'बस गपी एक बसती है' गुनगुनाने लगे। थोड़ी देर हुक्का पी चुकने के बाद सहसा पूछ बैठे, "तुम्हें आंसू और कामायनी के बीच का सूक्ष्म सूत्र दिखाई देता है ? मैंने कहा, ऐसा लगता है जैसे आंसू आरम्भ है और 'कामायनी' समापन है। आरम्भ में संयोग, वियोग है, व्यथा है, वेदना है और आंसू है, परन्तु 'कामायनी' इस सृष्टि की प्रलय के पीछे आनेवाली वह आधिभौतिक नई सृष्टि है जिसमें मनु, श्रता और इड़ा जन्म लेते हैं।" ___ वह मेरी बात काटते हुए बोले, "मारम्भ और समापन के बीच में तो बड़ा अन्तर होता है। इतना बड़ा अन्तर 'आँस्' और 'कामायनी' मे नही है । आँसू भौतिक प्रलय है जिसमें सुख-दुख और जीवन तीनों का तिरोधान हो जाता है और 'कामायनी' में एक वास्तविक सृष्टि रचने के लिए मनु का जन्म होता है। मासू' १२४ : प्रसाद वाङ्मय