पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४२७

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वह आंसू का निमित्त (कारण) दुख केवल रात के एकान्त तक ही ठहर सकता है। वह उषा की पलकों में उलझ कर उसके साथ चला जायगा। दिनोदय होते ही जीवन के समधिक महत्वपूर्ण कर्म-काल में जीवन फिर एक बार सुखवान बनेगा। परन्तु वह सुख भी सन्ध्या की अलकों में उलझ कर उसके साथ ही चला जायगा, क्योंकि रात का प्रलयंकर एकान्त फिर आने को हैं । महाकवि दुख की निरर्थकता से परिचित हैं इसलिए उसकी ज्वाला उस शीतल ज्वाला के समान है जिसको प्रज्वलित करने में प्रयुक्त होने वाला ईधन भो शीतलता पहुंचाने वाला आंसू का जल ही है। दुख में चलने वाले सांस में भी वही प्राण की अग्नि है जो सुख में रहती है परन्तु दुख की सेवा में रहने तक वह संसार के लिए व्यर्थ रहता है और ऐसा व्यर्थ सांस केवल उस अनिल की भूमिका ही निभा पाता है जो कवि को ज्वाला में भी शीतलता का अनुभव कराता है। सुख को आघात पहुँचा नहीं कि उमंगे शान्त हो जाती हैं। उमंगों के अक्रिय रहने तक सांस को परवश ढोते रहा बेगार बन जाता है। हृदय चेतना के रहते समाधिस्थ होकर बैठ जाता है और कवि की करुणा उसकी यह दुर्दशा देखकर अन्तर के एक कोने में बैठी आँसू बहाती रहती है। ____ इस सयाग से अब इसी हृदय में स्मृतियों की एक ऐसी बस्ती बस गयी है जिसमें स्मृतियां नक्षत्र लोक के असंख्य तारों की भांति टिमटिमा रही हैं। हृदय के तमसाच्छन्न नील निलय को स्मृतियों के नक्षत्र ही थोड़ा बहुत प्रकाश दे रहे हैं। स्मृतियों के आधारों के संयोग का महाकवि ने महामिलन से अभिहित किया है। इन आधारों का तो तिरोधान हो गया परन्तु उनके किसी समय के अस्तित्व के ज्ञापक शेष चिह्नों के समान केवल आँसू ही रह गये हैं। जिस समय उन आधारों से बिछोह हुआ तो दुख की ज्वालामयी जलन का अनुभव हुआ था परन्तु उस जलन में जैसे-जैसे शीतलता आती रही, स्फुलिंगों का विस्फोट होता रहा और उनमें से प्रत्येक स्फुलिंग आकाश के शीतलता प्रदान करने वाले प्रकाश-पिण्डों में परिणत हो गया । चातक भी चकित होकर किसी को देख और पुकार रहा है। श्यामा भी किसी इष्ट को रिझाने के लिए सरल रसीले गीत गा रही है। इनकी आन्तरिक प्रेरणा को समझ-समझ कर इन पर करुणा उमड़ पड़ती है और वह आंसू बनकर आंखों को गीला कर जाती है। जो लोग अपने सुख से बेसुध हैं और अपनी व्यथाओं को सुलाने में लगे हैं उन्हें इतना अवकाश ही नहीं है कि सृष्टि के वियोगियों की ओर से बोलने वाले महाकवि द्वारा सुनाई गयी करुण कथाएं सुन सकें। जिनकी कोई भी सन्ध्या माणिक के रंग की अंगूरी मदिरा के सेवन से वंचित नहीं है वह दिन भर के कर्म-काल में नाना प्रकार के दुख भोगने वालों की व्यथाएं क्यों सुनने लगे। संस्मरण पर्व : १२३