पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३

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जो उस समय समस्त भारतवर्ष में राष्ट्रभाषा के रूप में व्यवहृत थी, इसलिए इसका नाम महाराष्ट्री था। कुछ लोगों का विचार है कि यह काव्य कालिदास का नहीं है क्योंकि पहले विष्णु की स्तुति के रूप में मंगलाचरण किया गया है, परन्तु यह तर्क निस्सार है। कारण, 'रघुवंश' में बिष्णु की स्तुति कालिदास ने की है और 'सेतुबन्ध' में तो स्पष्ट रूप से लिखा मिलता है कि 'इ अ सिरि पवर सेण विरइए कालिदास कए' जब यह काव्य प्रवरसेन के लिए बनाया गया तो यह आवश्यक है कि उनके आराध्य विष्णु की स्तुति की जाय । प्रवरसेन ने जयस्वामी नामक विष्णु की मूर्ति वनवाई थी। वस्तुतः कालिदास के लिए शिव और विष्णु में भेद नहीं था। जैसा कि हम ऊपर कपर कह आये हैं शाकुन्तल के प्राकृत से सेतुबन्ध की प्राकृत अत्यन्त अर्वाचीन है। इसलिए उसे काव्यकार कालिदास का मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है। कालिदास के संस्कृत-काव्यों तथा इस महाराष्ट्री काव्य में कल्पना-शैली और भाव का भी साम्य है । कुछ उदाहरण लीजिय । वैदेहि पश्यामलयाद्विभक्त मत्सेतुनाफेनिलम्बुराशिम-(रघुवंश) दोसई से महा वह दोहाइअ पुब्व पच्छिम दिसा भाअम-(सेतुबन्ध) छाया पथेनेव शरत्प्रसन्नमाकाशमाविष्कृत चारुतारम्-(रघुवंश) मलअसुवेलालग्गो पडिट्ठियो णणि हम्मिसागर सलिले-(सेतुबन्ध) रत्नच्छाया व्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्तात-(मेघदूत) णिअच्छाआवइ अरसामलइअसाअरोअर जलद्धंतं-(सेतुबन्ध) ऐसा जान पड़ता है कि किमी कारण से प्रवरसेन और मातृगुप्त (कालिदास) में अनबन हो गयी और उसे राज्यसभा तथा कश्मीर को छोड़कर मालव आना पड़ा। शास्त्री महोदय के उम मत का निराकरण किया जा चुका है कि यशोधर्मदेव विक्रमादित्य नही थे। फिर सम्भवत: इन्हें स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का ही आश्रित मानना पड़ेगा। क्योंकि तुजीन और तौरमाण के समय मे काश्मीर आपस के विग्रह के कारण अरक्षित था। उज्जयिनी के विक्रमादित्य के लिए यह मिलता भी है कि उसने 'सकाश्मीरान्सकोबेरी काष्ठाश्च करदीकृता ।' यह स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य की की ही बदान्यता थी कि काश्मीर विजय करके उसे मातृगुप्त को दान कर दिया। चीनी यात्री ह्वेन्त्सांग ने लिखा है कि कुमारगप्त की सभा में दिङ्नाग के दादागुरु मनोरथ को हराने मे कालिदास की प्रतिभा ने काम किया था। कुमारगुप्त का समय ४५५ ई. तक है। किशोर मातृगुप्त ने कुमारगुप्त के समय में ही विद्या का परिचय दिया। मनोरथ के शिष्य बसुबन्धु थे और उनका शिष्य दिङ्नाग था, जिसने कालिदास के काव्यों की कड़ी आलोचना की थी। सम्भवतः उसी का प्रतिकार 'विङ्नागानां पथिपरिहरन स्थूल हस्तावलेपान्' से किया गया है क्योंकि स्कंदगुप्त विक्रमादित्य-परिचय : ४३