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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४

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प्राचीन टीकाकार मल्लिनाथ भी इसको मानते हैं। दिमाग का गुरु बसुबन्धु अयोध्या के विक्रमादित्य का सुहृद् था। बौद्ध विद्वान् परमार्थ ने उसकी. जीवनी लिखी है। इधर वामन ने काव्यालंकारसूत्रवृत्ति के अधिकरण ३ अध्याय २ मे साभिप्रायत्व का उदाहरण देते हुए एक श्लोकार्द्ध उद्धृत किया है 'सोऽयं सम्प्रति चन्द्रगुप्ततनयश्चन्द्रप्रकाशो युवा जातो भूपतिराश्रयः कृतधियां दिष्ट्या कृतार्थश्रमः' 'आश्रयः कृतधियामित्यस्य बसुबन्धु साचिव्योपक्षेप परत्वात्साभिप्रायत्वम् । यह अयोध्या के विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त' का तनय चन्द्रप्रकाश युवा कुमारगृप्त हो सकता है। बसुन्धु के गुरु मनोरथ का अन्त और उसका सभा मे पराजित होना स्वय बौद्धो ने कालिदास के द्वारा माना है। इसी द्वेष मे दिङ्नाग कालिदास का प्रतिद्वन्द्वी बना। अब यह मान लेने में कोई भ्रम नहीं होता कि मातृगुप्त किशोरावस्था में कुमार गुप्त की सगा मे थे। वही कालिदाम -म्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के सहचर थे, कुमारगुम ।। नामाक्ति एक काव्य भी-कुमारसम्भव बनाया। यह बात तो अप बहुत मे विद्वान् मानने लगे है कि कालिदास के काव्यो मे गुप्तवश का व्यजना मे वर्णन है। हूणो के उत्पात और उनसे रक्षा करने के वर्णन का पूर्ण आभास कुमारसम्मव मे है । स्कन्दगुप्त के भितरीवाले शिलालेख में एक स्थान पर उल्लेख है-- 'क्षितितलशयनीये येन नीता त्रियामा' तो 'रघुवंश' मे भी मिलता है - सललितकुसुमप्रवालशययां, ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम् । नरपति रतिवाहयां बभूव क्वचिद् समेतपरिच्छदस्त्रियामाम् ॥ १. विक्रमादित्य इत्यामीद्राजा पालिपुत्रके (कथा मरित्मागर) यह द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लिए आया है। बौद्धो ने अयोध्या मे इमरी राजधानी होना लिखा है। सम्भवा. मगध की साम्राज्य-सीमा बढ़ने पर अयोध्या मे मम्राट् कुछ दिनों के लिए रहने लगे हो, परन्तु उज्जयिनी में इनका शासन होना किमी भी लेखक ने नही लिखा है । इनके पुत्र कुमारगुप्त ने 'महोदय' को विशेष आदर दिया; क्योकि साम्राज्य धीरे-धीरे उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ रहा था। वस्तुतः जान राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ गुप्त-सम्राट् लोग कुसुमपुर को प्रधान हार विधानुसार अपने रहने का स्थान बदलते रहे है। क्योंकि उन्हें सैनिक केन्द्रों काबर परिवर्तन करना पड़ता था। P.RE L.F ४४ : प्रसाद वाङ्मय

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