पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३४

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सेठ का लिखा हुआ मिला, जिसमें उन्हें कलकत्ता बुला रखा था, क्योंकि 'उग्र' को कुछ समय के लिए 'महात्मा-ईसा' की बिक्री का हिसाब लेने के लिए काशी आना पा। दूसरा पत्र भार्गवजी का सुधा कार्यालय, लखनऊ से लगलग इसी आशय का मिला और वह विनोद से पचास रुपये लेकर कहां चले गये, यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्होंने किसी को स्टेशन तक पहुंचाने के लिए साथ ले जाना उचित नही समझा। जहां तक मेरा अनुमान है निराला ने इससे पहले केवल एक बार दुकान पर बाबू साहब से थोड़ी देर के लिए भेंट की थी। उस समय वहाँ अपना काव्य सुनाना कदाचित अपनी मान्यता के मानसम्भ्रम की दृष्टि से ठीक नही समझा था। उनसे घर पर मिलने का निराला का यह पहला ही अवसर था। बाबू साहब का हृदय अत्यन्त संवेदनशील था। परन्तु वह अपने मानदण्ड से कविकर्मा को एक सुस्पष्ट आचार-संहिता से शासित समझते थे। मुक्ताहार बिहार के विषय में तो सुना ही था, परन्तु निराला का पीकर आना, और अनगिनती अनमिल टुकड़ो में अनेक-छन्दा 'जूही की कली' सुनाना उन्हें ऐसा लगा, जैसे निराला के प्रदर्शनपट काव्यपाठ के बाद आंसू के सद्योरचित छन्द सुनाने योग्य वातावरण नही था, क्योंकि वे भूमिका-साध्य, छन्दोबद्ध और आत्मानुशीलक थे । बाबू साहब के लिए अपनी कृति की भूमिका सुनाने से अधिक अप्रिय न सुनाना भी न था। ___ यह तो तीन दिन पीछे जब विनोद उनसे दुकान पर मिले तो पता चला कि बाबू साहब ने तब से अब तक 'औसू' के बीस छन्द और लिख लिये थे। उन्हे इस बात का दुःख था कि वह 'निराला' के अनुरोध का पालन न कर सके। आन्तरिक प्रोत्साहन अन्त तक नहीं मिल सका और इसलिए नहीं सुना सके। निराला का चला जाना सुनकर उन्होने केवल इतना ही कहा था, "चलो, फिर कभी सुन लेगे। तुम्हारे पास तो आयेगे ही।" विनोद ने बताया कि वह उस रात उन्हे घर तक पहुँचाने गये थे, और 'आँस' के बीस छन्द सुनकर रात एक बजे वही सो गये थे । ___ यह बीस छन्द पुस्तक मे कहा होगे, यह नहीं कहा जा सकता क्योकि विनोद को स्वयं कुछ दिनो बाद याद नही था कि कही से कोई एक भी लाइन सुना देते । अब मैं इस 'चेतना तरंगिनी तीरे' तक उस दिन के सुने हुए दस छन्दों का पुण्यस्मरण कर रहा हूँ। कवि का हृदय कमल भौरों जैसी रूपपायी अलकों की स्मृति से घिरकर रात के समय निःश्वसित हो उठता और निःश्वास वायु से उडकर मकरन्द-कण की भांति आस् नेत्रों में उमड़ आता है। निःश्वसित होने की क्रिया रात के समय बन्द हो जाने वाले कमल के आन्तरिक श्वासोच्छ्वास से मकरन्द कणो की भीतर ही भीतर १३० : प्रसाद वाङ्मय